‘पालने वाला बड़ा है, या पैदा करने
वाला?’ सवाल द्वापर युग से चला आ रहा है, जब कृष्ण को लेकर
यशोदा और देवकी दोनों अपने-अपने दावों पर मज़बूत खड़े दिखाई देते हैं. फिल्मों में भी
इस तरह का भावनात्मक द्वन्द आज तक परदे पर आना कायम रहा है, शायद इसलिये क्यूंकि भारतीय
पारिवारिक मनोरंजन का एक काफी बड़ा हिस्सा माँओं के साथ गहरा जुड़ाव महसूस करता है. मराठी
की ही एक और बेहतरीन फिल्म ‘नाळ’ में दो माँओं को एक बच्चे के लिए तड़पते हमने पिछले
साल ही देखा है. राज आर. गुप्ता की ‘बाबा’ थोड़ी अलग है.
पालने और पैदा करने वाली माँओं के ज़ज्बाती उथल-पुथल भरे समन्दर के बीच, बड़ी निर्ममता
से पिता के प्रेम और पुरुषार्थ को सवालिया कठघरे में खड़े करने वाली एक छोटी सी नाव
डूबने के लिये छोड़ देती है. सवाल अब और पेचीदा हो गया है- ‘पालने वाला क्या बच्चे
को, पैदा करने वाले से बेहतर भविष्य दे पायेगा?’. ख़ास कर तब, जब मामला आर्थिक दुर्बलता के साथ साथ शारीरिक विकलांगता का भी हो.
माधव (दीपक डोबरियाल) और आनंदी
(नंदिता पाटकर) सुन-बोल नहीं सकते. आठ साल का शंकर (आर्यन मेघजी) 3 दिन का था, जब
उन्होंने उसे अपनाया था. माधव-आनंदी को अंदाज़ा भी नहीं है कि उनके साथ रहते रहते
शंकर भी कभी बोलना सीख नहीं पाया. कुछ रिश्तों को समझने, पनपने के लिए शब्दों की
जरूरत नहीं पड़ती. माधव-आनंदी-शंकर के आपसी रिश्तों में शब्दों के लिए जगह ही नहीं
है, न ही उसकी कोई कमी ही महसूस होती है. हाँ, एक त्रयम्बक (चितरंजन गिरि) ही उनका नज़दीकी है,
जिसका शब्दों से लेना-देना है, वो भी थोड़ा-बहुत ही. त्रयम्बक
हकलाता है. ऐसे में, एक दिन शंकर को जन्म देने वाली माँ
पल्लवी (स्पृहा जोशी) अपने पति के साथ शंकर पर अपना खोया हुआ हक़ जमाने आ पहुँचती
है. कोर्ट में माधव और आनंदी की परवरिश पर उंगलियाँ उठाईं जा रही हैं. शंकर का
भविष्य दांव पर है. अगली सुनवाई में अभी 22 दिन बाकी हैं, और
अगर इस बीच माधव शंकर को बोलना सीखा देता है तो शंकर पर उसके दावेदारी की कुछ उम्मीद बन
सकती है.
‘बाबा’ पिताओं
के लगातार संघर्ष की कहानी है. वो पिता, जो अपने बच्चे की भलाई के लिए दिन-रात लगा
रहे और माथे पर शिकन भी न आने दे. दीपक डोबरियाल के सजीव अभिनय में माधव फिल्म का
सबसे मजबूत पक्ष बनकर उभरता है. माधव को तमाम नाउम्मीदी और कठिनाइयों के बीच भी आप
कभी रोते हुए नहीं पायेंगे, हालाँकि उसका गुस्सा, उसकी खीझ
जरूर आपको बीच बीच में कोंचती रहेगी- कभी भगवान की मूर्ति के आगे सवाल करते हुए, तो कभी जज साब के फैसले से नाराजगी जताते हुए. रेडियो खरीदने से लेकर रोज़ाना
50 रूपये में रटंत तोते वाले को घर पर रखने और गाँव की दुकान पर लड़की के मेकअप में
पुतला बनकर दिन भर खड़ा रहने तक, माधव शंकर को बोलना सिखाने
के लिए जान लगा देता है, और उस माधव को परदे पर जिंदा करने के लिए दीपक अभिनय में
अपनी. दीपक अब तक की फिल्मों में अपने ‘वन-लाइनर्स’ के साथ आपको गुदगुदाते रहे हैं, ‘बाबा’ उनके लिए और उनके चाहने वालों के लिए आसान
किरदार नहीं है. बहुत मुमकिन है कि इसके बाद आप दीपक को इसी रूप में देखने की चाह
रखने लगें.
नंदिता पाटकर अपनी अदाकारी में हर वो
तेवर इस्तेमाल करती हैं, जिसकी कमी आपको दीपक के अभिनय में दिखती
है. आनंदी माधव की तरह अपने आपको बाँध के नहीं रखती. उसके ज़ज्बात ज्यादा मुखर होके
उभरते हैं, शायद इसीलिए उसके साथ जुड़ना आसान लगता है. आर्यन की कास्टिंग फिल्म के
लिए वरदान की तरह है. आर्यन की मासूमियत और शरारतें कहीं से भी बनावटी या अभ्यास
की हुई नहीं लगतीं. कोर्ट के एक दृश्य में वो उबासियाँ ले रहा है. सिग्नल न मिलने
के कारण पूरे दिन में उसने रेडियो से सिर्फ खरखराहट की आवाज़ ही सीखी है. उसी की
नक़ल उतार रहा है. हाँ, स्पृहा और अभिजीत का चुनाव फिल्म के खराब
पहलुओं में जरूर शामिल है. दोनों के अभिनय बेहद नपे-तुले और औसत दर्जे के नज़र आते
हैं, तब जबकि दीपक और नंदिता दूसरी तरफ बिलकुल सहज हों. उनके
फ्रेम में आते ही फिल्म अपनी नैसर्गिक ख़ूबसूरती से हटकर बनावटी साज़-सजावट वाली
दुनिया में चली जाती है. सरकारी वकील की भूमिका में जयंत गडेकर हंसाने-गुदगुदाने
में कामयाब रहते हैं. गिरि बेहतरीन है.
पहली ही फिल्म होने के बावज़ूद, ‘बाबा’ में राज आर गुप्ता अपनी पकड़ कहीं भी कमज़ोर नहीं पड़ने देते. फिल्म में ऐसे
दृश्यों की भरमार है, जहां फिल्म में वक़्त और जगह को कैद
करने में छोटी-छोटी डीटेल्स का पूरा ध्यान रखा गया है. फिल्म 90 के दशक में है. घर
में डालडा घी का डब्बा पड़ा है. पुलिस स्टेशन में पुराने प्रधानमंत्री वीपी सिंह का
फोटो हटाकर नए प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की तस्वीर लगाई जा रही है. एक अन्य बेहद
प्रशंसनीय दृश्य में रेडियो पर उन्हीं का भाषण चल रहा है, जब
कुछ बच्चे रेडियो चुराकर भाग रहे हैं. शंकर अपने पिता के साथ लौट रहा है- चार्ली
चैपलिन की फिल्म ‘द किड’ देख कर. ‘बाबा’ की कहानी ‘द किड’ के कथानक से मेल खाती है. फिल्म
में गानों का इस्तेमाल में बेहद कंजूसी और जरूरत के हिसाब से ही है. हालाँकि फिल्म
अपने कुछ हिस्सों में बहुत धीमी पड़ने लगती है, लम्बी लगने
लगती है, कुछ में बार-बार अपने आप को दोहराती भी है. सवालों
की एक खेप भी खड़ी होती है, जैसे शंकर स्कूल क्यूँ नहीं जाता?
पर ज़ज्बातों के बहाव में सब पीछे छूट जाते हैं.
आखिर में, ‘बाबा’
मराठी फिल्मों के उस प्रयोग का हिस्सा है, जहां सीधी-साधी दिल
छू लेने वाली कहानी के साथ-साथ आपको क्वालिटी सिनेमा का पुट भी ख़ूब मिलता है. चाहे
वो खूबसूरत सिनेमेटोग्राफी से हो, या फिर दमदार अभिनय से. वैसे
तो ‘बाबा’ सिर्फ और सिर्फ दीपक डोबरियाल को खुले दिल से
सराहे जाने के लिए भी देखी जा सकती है, पर आप देखिये क्यूंकि
कुछ कहानियाँ ज़ज्बाती तौर पर आपको द्रवित करने में कभी पुरानी नहीं होतीं. [3.5/5]
Where are you ???
ReplyDeleteMissing your reviews....