Friday 8 January 2016

चौरंगा (A): नाटकीयता से परे, वास्तविकता का सिनेमा! [4/5]

जातिगत विसंगतियों के दुष्प्रभाव, छूत-अछूत के लाग-लपेट और धर्म के नाम पर विकलांग मानसिकता का परिचय देते भारतीय समाज को हमने पहले भी श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलाणी के सिनेमा में तार-तार होते देखा है. ‘चौरंगा’ भी काफी हद तक इसी दायरे में फैलती-सिमटती दिखाई देती है, इसीलिए एक मूल प्रश्न बार-बार दिमाग में कौंधता रहता है. ‘क्या कुछ भी नहीं बदला है?’ उत्तर फिल्म ख़तम होने के तुरंत बाद कुछ सरकारी तथ्यों के परदे पर उभरने के साथ ही मिलने शुरू हो जाते हैं. सच में, कुछ भी नहीं बदला है. और अगर नहीं बदला है तो सिर्फ सिनेमा में बदलाव दिखा देने भर से क्या सचमुच बदलाव आ जायेगा? ‘चौरंगा’ की पृष्ठभूमि, ‘चौरंगा’ के कथानक और ‘चौरंगा’ के पात्रों से पुराने होने की गंध भले ही आती हो, पर ‘चौरंगा’ के प्रासंगिकता की चमक पर कहीं कोई धूल जमी दिखाई नहीं देती. ‘चौरंगा’ एक सार्थक कोशिश है भारतीय समाज के उस एक वर्ग को टटोलने में, जिसे हम शहरी चकाचौंध के लिए कहीं अँधेरे में छोड़ आये हैं.

साहब (संजय सूरी) गाँव वालों के लिए हैंडपंप लगवा रहे हैं. पंचायत के पैसों से ही सही, लेकिन साहब ने आज पूरे गाँव के लिए भोज और सिनेमा का प्रबंध कराया है. साहब दलितों को लात मार सकते हैं पर दलित अगर साहब का पैर छूने जाएँ, तो साहब छिटक पड़ते हैं. रात के अँधेरे में तो साहब और भी दयालु हो उठते हैं, सूअर पालने वाली धनिया (तनिष्ठा चैटर्जी) से ऐसे लिपटते हैं जैसे चन्दन के पेड़ से सांप. धनिया भी क्या करे? मौका देख के साहब से बेटों की पढाई-लिखाई का इंतज़ाम करवा ही लेती है. बड़ा बेटा बजरंगिया (रिद्धि सेन) खप गया है. पढ़ाई के साथ साथ इस विकृत सामाजिक ढाँचे को जानने-समझने लगा है पर छोटा बेटा संतू (सोहम मैत्रा) अभी भी सवालों का टेपरिकॉर्डर लिए घूमता रहता है. साहब की बेटी से प्यार होने लगा है उसे, और उसकी मानें तो लड़की भी कभी-कभी देख लेती है उसकी ओर.

‘चौरंगा’ का संसार सिनेमा के प्रभाव में फंसने की गलती नहीं करता. वास्तविकता के चित्रण में नाटकीयता का थोड़ा भी दखल महसूस नहीं होने देता. बिकाश रंजन मिश्रा अपनी पहली ही फिल्म में इस उंचाई को बड़ी सहजता से छू जाते हैं, देख कर ख़ुशी भी होती है और हैरानी भी. बजरंगिया और संतू के बीच के दृश्य फिल्म को बांधे रखते हैं. ये वो दृश्य हैं जहां कच्ची उम्र की मासूमियत भी है, बन्धनों में जकड़े रहने की पीड़ा भी है और सब कुछ तोड़, भाग निकलने की उमंगें भी हैं. फिल्म के कुछ किरदार अँधेरे में बहुत भयावह लगने लगते हैं, जैसे यौन कुंठा से ग्रस्त अंधे पुजारी बाबा [धृतिमान चैटर्जी]. पर मिश्रा कहीं भी फिल्म को सनसनीखेज बना कर बेचने की भूल नहीं करते.

अभिनय की दृष्टि से संजय सूरी सबसे ज्यादा हैरान करते हैं. उन्हें इस तरह के ठेठ गंवई किरदार में देखने का तजुर्बा किसी को भी नहीं रहा है, और वो बखूबी जंचते हैं. ‘माय ब्रदर निखिल’ के बाद ये उनकी सबसे बेहतरीन अदाकारी है. तनिष्ठा को हम पहले भी इस तरह के किरदारों में देखते आये हैं. उन्हें तो एक तरह से महारत हासिल है. धृतिमान चैटर्जी का अभिनय किसी सपने जैसा है, आपको बार बार खुद को एहसास दिलाना पड़ता है कि आप सिनेमा ही देख रहे हैं. और अंत में दोनों बाल कलाकार, अभिनय में जिनकी सहजता और सरलता लाजवाब है.

‘चौरंगा’ उन सभी लोगों के लिए है, जिन्हें अक्सर शिकायत रहती है कि अच्छी फिल्में अब कहाँ बनती हैं? ‘आँखों देखी’, ‘मसान’, ‘अमरीका’ और ‘चौरंगा’ जैसी ‘भारतीय’ फिल्मों के साथ नए भारत का सिनेमा अब अपने मानक खुद तय करने लगा है. थोड़ी पहल आपको भी करनी होगी. जरूर देखिये! [4/5]   

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