Friday 4 March 2016

ज़ुबान: दिल, दुनिया और म्यूजिक! [3/5]

सपनों के पीछे भागते-भागते आप मंजिल तक पहुँच जाएँ, और वहाँ पहुँच कर आपको लगे कि ये तो वो मंजिल नहीं, जिसके लिए अब तक आपने इतनी जद्दोजेहद की. ऐसा अक्सर नहीं होता. ऐसा सबके साथ भी नहीं होता. या अगर होता भी है तो इतनी देर से कि आपका पीछे लौटना मुमकिन ही न हो. पहली बार निर्देशन की बागडोर सँभालते मोज़ेज सिंह की ‘ज़ुबान’ एक ऐसे नौजवान की कहानी है, जो अपने सपनों के लिए किसी भी हद तक जा सकता है पर, एक दिन जब उसके चाहतों की दुनिया उसके क़दमों में बिछी दिखाई देती है, उसे एहसास होता है इस पूरे सफ़र में उसने अपनी पहचान ही खो दी है, अपनी जुबान ही खो दी है.

गुरदासपुर के दिलशेर [विक्की कौशल] को अपने रोल मॉडल गुरुशरण सिकंद [मनीष चौधरी] जैसा ही एक अमीर और कामयाब बिज़नसमैन बनना है. सिकंद उसी के गाँव से आते हैं, शायद इसीलिए दिलशेर सिकंद ही बनना चाहता है. हालाँकि हमेशा से ऐसा नहीं था. दिलशेर को अपने पिता के साथ गुरबानी गाना बहुत भाता था पर एक हादसे में पिता नहीं रहे. और अब दिलशेर हकलाता भी है. सिकंद तक पहुँचने के लिए, दूसरा सिकंद बनने के लिए दिलशेर कोई मौके नहीं छोड़ता पर जब अपनी सारी कोशिशों के बाद उसे अपनी मंजिल तय नज़र आती है, अचानक उसे सब कुछ बेमानी लगने लगता है. जैसे कस्तूरी उसके अन्दर ही रची-बसी थी और वो पागलों की तरफ इधर-उधर भटक रहा था. उसकी ज़ुबान ही उसकी पहचान है...और उसे इसका एहसास दिलाने में मदद करती है, अमाईरा [सारा जेन डायस]!

‘जुबान’ उन चंद खूबसूरत फिल्मों में से है, जो आपसे कुछ कहने की कोशिश करती हैं (यकीन मानिये, ऐसा हर फिल्म के साथ नहीं होता. मेरी याददाश्त में शायद ‘तमाशा’ इस तरह की आखिरी फिल्म रही है) ये बात दीगर है कि कई बार ये कोशिश सटीक बैठती है, कई बार नहीं. फिल्म को गहराई देने के लिए मोजेज़ अक्सर गीतों और संगीत को अपना जरिया बनाते हैं, जो कहीं से भी आपको निराश नहीं करते और फिल्म को नयेपन का चोला पहनाने में भी बखूबी कामयाबी हासिल करते हैं. फिल्म एक ठहराव के साथ आगे बढती है, जहां कहानी के बहुत से हिस्से पहले रोमांचक तरीके से छिपाने और बाद में सामने लाने के सांचे में पिरोये गए हैं.

खूबसूरत सिनेमेटोग्राफी के साथ-साथ, ‘ज़ुबान’ को देखने लायक फिल्म बनाते हैं तो वो हैं उसके किरदार और उन किरदारों में ढले कलाकार. हालाँकि विक्की कौशल को हम ‘मसान’ में पहले भी देख चुके हैं, मगर तकनीकी तौर पर ये उनकी पहली फिल्म है. उनके अभिनय में एक ख़ास तरह का कसाव है जो आपको कभी भी उनसे ऊबने नहीं देता. मनीष चौधरी मंजे हुए अदाकार माने जाते हैं, और यहाँ भी वो अपना लोहा खूब मनवाते हैं. सारा जेन डायस फिल्म में एक अलग ही रंग भरती हैं. सिकंद के बेटे की भूमिका में राघव चानना प्रभावित करते हैं.

आखिर में; ‘ज़ुबान’ में सब कुछ अच्छा है, ऐसा नहीं है. कहानी की पकड़ अक्सर आप पर बनती-छूटती रहती है. फिल्म की रफ़्तार भी कुछ इस तरह की है कि आप इसे एक ‘स्लो’ फिल्म कहने से गुरेज नहीं करते, पर इन सबके बावजूद ‘ज़ुबान’ एक आम फिल्म नहीं है, एक आसान फिल्म नहीं है. दिल, दुनिया और दिमाग के बीच झूलते-जूझते नौजवानों को आवाज देती एक ऐसी ज़बान, जिसे सुनने-समझने के लिए आपको भी थोड़ी मेहनत तो करनी होगी. [3/5] 

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