अपने तमाम समकालीन
फिल्मों की तरह ही, ‘फ़ोर्स 2’ भी सीक्वल होने का कोई भी धर्म निभाने में दिलचस्पी
नहीं दिखाती; सिवाय गिनती के दो-चार दृश्यों में जहां एसीपी यशवर्धन (जॉन
अब्राहम) अपनी स्वर्गीया पत्नी माया (जेनेलिया देशमुख, मेहमान भूमिका
में) से यादों में रू-ब-रू होते हैं. वरना तो इस फिल्म को आप ‘रॉकी हैण्डसम 2’
या ‘ढिशूम 2’ ही क्यूँ न कह लें, किसी की क्या मजाल, जो अंतर बता भी सके. हाँ,
दो बातें अहम् हैं, जो इस फिल्म की बड़ी खासियत कही जा सकती हैं. एक तो ये ‘आजकल’
की फिल्म है. मामले की गंभीरता को समझाने के लिए ‘ये देश की सुरक्षा का मामला
है’ जैसे जुमले यहाँ दिल खोल कर बोले जाते हैं. पाकिस्तान को डायलाग बोल-बोल
कर तबाह कर देना, बॉलीवुड के लिए अब जैसे पुराना हो चला है. चीन है अब हमारा अगला
निशाना. हीरो पहले भी अंडरकवर मिशन पर जाता था, विदेशी धरती पर खलनायकों का कीमा
बना के लौट आता था, पर इस बार उसके इरादे और लोहा हो गए हैं. उसकी बुलंद आवाज़ में
जैसे कोई और भी दहाड़ रहा है, “देश बदल रहा है, सर! अब हम घर में घुस के मारते
हैं!”
दूसरी खासियत है, फिल्म
का दकियानूसी विवादों से बचे रहने की लगातार कोशिश. यहाँ देश से गद्दारी करने वाला
कोई ‘अब्दुल’ या ‘सलीम’ नहीं है, बल्कि शिव शर्मा (ताहिर राज भसीन) है,
जिसकी वजहें भले ही निजी और ज़ज्बाती हों, गुनाह तनिक भी हलके नहीं हैं. उसके तेवरों
में भी धार और चमक आजकल वाली ही है, “देशभक्त और देशद्रोही की बहस तो आप मुझसे कीजियेगा
ही मत, हार जायेंगे!”. पर इन सब के और अपनी सांसें रोक देने वाली तेज़ रफ़्तार
के बावजूद, अभिनय देव की ‘फ़ोर्स 2’ एक आम एक्शन फिल्म है, जहां लॉजिक
और इमोशन्स दोनों ही स्टाइल की भेंट चढ़ जाते हैं. ‘फ़ोर्स’ सुपरहिट
तमिल फिल्म ‘काखा काखा’ की रीमेक थी, इसलिए साउथ इंडियन फिल्मों का सबसे
कामयाब और स्पेशल ‘इमोशनल’ एंगल फिल्म में भरपूर मात्रा में था. ‘फ़ोर्स 2’
सिर्फ और सिर्फ आपकी आँखों तक पहुँचता है, न दिल तक, न दिमाग तक!
हंगरी में भारत के रॉ (रिसर्च
एंड एनालिसिस विंग) एजेंट्स को कोई एक-एक करके मार रहा है. इन्वेस्टीगेशन मिशन
पर जा रहे हैं दो लोग. मुंबई क्राइम ब्रान्च के एसीपी यशवर्धन (जॉन अब्राहम),
जिनका जासूस दोस्त पहले ही शहीद हो गया है और क्यूंकि रॉ चीफ के अनुसार, ‘पहला
क्लू यश को ही मिला था”. दूसरी हैं रॉ की सबसे काबिल ऑफिसर कमलजीत कौर उर्फ़ के.के.
(सोनाक्षी सिन्हा). के.के. गोली नहीं चला सकतीं. उसके पीछे उनके अपनी वजहें
हैं. और मुझे नहीं पता, ये राज़ उनके डिपार्टमेंट में किस किस को पता था? और फिर वो
दूसरी क्या खूबियाँ थीं उनमें, जिसकी वजह से उन्हें इस मिशन के लिए चुना गया?
स्मार्ट होंगी शायद, पर जब एक जगह फिल्म के खलनायक शिव (ताहिर राज़ भसीन)
उन्हें टिप देते हैं, रॉ का एक और एजेंट अगले आधे घंटे में मारा जाने वाला है और
सिर्फ वो ही उसे बचा सकती हैं; के.के. का दिमाग सिग्नल भेजता है, “इसका मतलब वो
एजेंट कहीं आस-पास ही है” इसके तुरंत बाद आपका दिमाग के.के. से आपका ध्यान हटा
कर फिल्म के निर्देशक की ओर ले जाता है, जो अगले बीस मिनट तक लम्बे-लम्बे शूटआउट्स
के साथ, दिन से रात होने के बाद भी ‘जल्दी करो, सिर्फ 10 मिनट और बचे हैं’
की घुट्टी दर्शकों को बड़ी बेशर्मी से पिलाते रहते हैं.
‘फ़ोर्स 2’ उन
तमाम फिल्मों की अगली कड़ी है, जिनमें सिनेमेटोग्राफी और एक्शन को कहानी से ज्यादा
तवज्जो मिलती है. ऐसे फिल्मों में अभिनय की बारीकियां ढूँढने की गलती न मैं करता
हूँ, न ही आपको करनी चाहिए. फिर भी. जॉन अब्राहम जिस्मानी दर्द को परदे पर
परोसने में ज्यादा मेहनत दिखाते हैं, चाहे वो चलती कार को हाथों से उठाने का स्टंट
हो या मार-पीट के दौरान बदन में घुसी कील को निकालने की जद्दोजेहद. सोनाक्षी
रॉ एजेंट दिखने में सारा वक़्त और सारी मेहनत बर्बाद कर देती हैं. काश, उनके किरदार
को थोड़ी सूझबूझ भी, खैरात में ही सही, फिल्म के लेखकों ने दे दी होती. ये वो काबिल
ऑफिसर है, जो ‘मिशन कौन लीड करेगा?’’ जैसे सवालों में ही खुश रहती है. ‘फ़ोर्स
2’ टाइटल को अगर जायज़ ठहराना हो तो, ‘2’ इशारा करेगा जॉन और सोनाक्षी
की जोड़ी को, और पूरा का पूरा फ़ोर्स जायेगा ताहिर के नाम. ताहिर अपनी
खलनायकी में हर वो रंग परोसते हैं, जो मजेदार भी है, रोमांचक भी है और थोड़ा ही सही
पर इमोशनल भी. आम तौर पर ये सारा कुछ हीरो के जिम्मे होता है. इस बार नहीं.
अंत में, ‘फ़ोर्स 2’ इतनी
तेज़ रफ़्तार से आपकी आँखों के सामने चलता रहता है, कि ज्यादातर वक़्त आपको सोचने का
वक़्त भी नहीं मिलता. अब यही खासियत भी है, और यही नाकामी भी. जितनी तेज़ी से चीजें
चलती रहती हैं, उतनी ही तेज़ी से चली भी जाती हैं. आखिर बुरा वक़्त जितनी जल्दी गुज़र
जाए, अच्छा ही होता है! [2/5]
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