दुल्हन शादी के मंडप में
दूल्हे को सजा-सजाया छोड़ के भाग गयी है. पढ़ी-लिखी है, उसे ‘क्लौस्ट्रोफ़ोबिया’ का
मतलब अच्छी तरह पता है. एक साल बाद खबर आई है कि लड़की मुंबई में कहीं है. लड़का अब
भी हाथ भर का मुंह लटकाए, थूथन फुलाए सड़क पर बाइक का एक्सीलेटर चांप रहा है. पिताजी
हैं बड़का विलेन टाइप. फरमान सुना दिये हैं कि लड़की को उठा लाओ, हवेली के चौखटे पे लटका
देंगे ताकि पता तो चले, बेइज्ज़ती का ज़ायका होता कैसा है? लड़का भी अपने झाँसी का ही
है, ‘जो आज्ञा, पिताजी’ बोल के निकल पड़ा है. खैर, दुल्हनिया बद्रीनाथ की हो या
केदारनाथ की, पिक्चर तो करन जौहर की ही है ना! तो भईया, आखिर में होना वही
है, क्लाइमेक्स तक पहुँचते-पहुँचते लड़के में बदलाव के लक्षण इतने तेज़ी से चमकाई
देते हैं जैसे फिल्म नहीं, गोरा बनाने वाली फेयरनेस क्रीम का विज्ञापन चल रहा हो.
और लड़की? लड़कियों के लिए तो भाई आजकल सब माफ़ है. हम और आप होते कौन हैं, उनके
इंटेंट और ‘चेंज ऑफ़ इंटरेस्ट’ पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाने वाले?
‘हम्प्टी शर्मा की
दुल्हनिया’ के तर्ज़ पर ही, लेखक-निर्देशक शशांक खेतान एक बार
फिर आपका परिचय छोटे शहरों के मिडिल-क्लास घरों-परिवारों के बड़े अपने से लगने वाले
किरदारों से कराते हैं. तेज़-तर्रार बाप (रितुराज सिंह) के आगे कोई अपनी
मर्ज़ी से चूं तक नहीं कर सकता. भाभी (श्वेता बासु प्रसाद) पढ़ी-लिखी होने के
बावज़ूद, जॉब करने जैसी फालतू बात सोच भी नहीं सकती. और लड़के तो एक नम्बर के मजनूं.
दूसरे की शादी में अपने लिए लड़की पसंद कर आते हैं, वो भी दुल्हन की सबसे क़रीबी. नहीं,
नहीं, वो पीछे वाली सांवली-सलोनी नहीं, आगे वाली गोरी-चिट्टी, जो बाकायदा स्टेप मिला-मिला
के डांस कर लेती हो. फिर ‘वो तेरी, ये मेरी, इसको तू रख ले, उसको मुझे दे दे’,
और उसके बाद लड़की (आलिया भट्ट) के आगे-पीछे चक्कर लगाने का खेल. वैसे ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ बड़े ठीक
मौके पर सिनेमाघरों में आई है. भाजपा जल्द ही उत्तर प्रदेश में ‘एंटी-रोमियो स्क्वाड’
का गठन करने वाली है. अपनी थेथरई, बेहयाई और अकड़ की वजह से, उनके लिए बद्रीनाथ (वरुण
धवन) जैसे आशिक़ एकदम सटीक बैठते हैं, जिनको लड़कियों की ‘ना’ सुनाई ही नहीं
देती, जिनके ताव के आगे क्या झाँसी, क्या सिंगापुर, सब बराबर हैं, और जिनको लड़की
पर धौंस जमानी हो, तो ‘मेरा बाप कौन है, पता है?” जैसे जुमले उछालने खूब
आते हों.
लड़का-लड़की के बीच का भेदभाव
हो, समाज की कुंठित-कुत्सित पितृसत्तात्मक व्यवस्था हो या फिर दहेज़ की समस्या;
फिल्म पहले तो बड़ी समझदारी से उन पर व्यंग्य कसती है, हंसती है-हंसाती है, पर कहीं-कहीं
उनका मखौल उड़ाने की जल्दबाजी में अपनी कमजोरियां, अपनी उदासीनता भी जग-जाहिर कर
बैठती है. झाँसी के लड़के ‘मोलेस्टेशन’ का मतलब भी नहीं जानते, पर जब उन्हीं के साथ
(जी हाँ, मर्दों के साथ भी होता है) ऐसी स्थिति बनती है, तो समझदार, सेंसिटिव
वैदेही भी मुंह दबा कर हंसती नज़र आती है. वहीँ बदला हुआ बद्री जब अपने परिवार के
बारे में टीका-टिप्पणी करता है, “वैदेही तो यहाँ घुट-घुट के मर जाती!’, उस
मूढ़ को सामने खड़ी अपनी भाभी नज़र भी नहीं आतीं, जिनकी हालत और हालात वैदेही से कहीं
कमतर नहीं. ‘चैरिटी बिगिन्स एट होम’ उसने शायद सुना भी नहीं होगा!
फिल्म अपने पहले हिस्से
में बड़े भोलेपन और सादगी के साथ, भारतीय मर्दों के जंग लगे अहं और भारतीय स्त्रियों
के बदलते ‘मेरी आजादी, मेरा ब्रांड’ सुर के बीच के टकराव को सामने लाती है, पर
मध्यांतर के तुरंत बाद सब उलट-पुलट और गड्डमगड्ड हो जाता है. किरदार अपने रंग
छोड़ने लगते हैं. कहानी ढर्रे पर उतरती चली जाती है, और अंत तक पहुँचते-पहुँचते तो
सब कुछ ‘बॉलीवुडाना’ हो जाता है. सही को सही कहने के लिए, गलत को गलत ठहराने के
लिए ‘बोतल’ की भूमिका अहम हो जाती है, और अंत तो तभी सुखद होगा ना, जब लड़का-लड़की मिलेंगे
और ‘शादी’ होगी. ताज्जुब होता है कि ऐसी फिल्म करन जौहर के बैनर से निकलती
है, जो खुद ‘शादी’ को इतनी अहमियत नहीं देते और अभी-अभी अविवाहित रहते हुए सरोगेसी
के जरिये जुड़वाँ बच्चों के पिता बने हैं.
आखिर में, सिर्फ इतना ही
कि फिल्म में ‘क्यूटनेस’ कूट-कूट कर भरी है तो मुद्दों को गंभीर हुए बिना नज़रंदाज़
किया भी जा सकता है. हिंदी सिनेमा अब तक बॉक्सऑफिस पर आखिर यही फार्मूला तो भुनाता
आया है, सवाल है कि कब तक? हालाँकि इस फिल्म के बद्री को बदलने में महज़ कुछ घंटे
ही लगते हैं, जब वो अपने होने वाले बच्चों के नाम ‘विष्णु, सार्थक, रुक्मणि और
प्रेरणा’ से बदल कर ‘वैष्णवी, सार्थकी, रुक्मणि और प्रेरणा’ कर लेता है (मैं
इसे अति-फेमिनिज्म कहता हूँ), पर हमारे सिनेमा, समाज और सोच को बदलने में जाने
कितने और साल लग जाएँ, कौन कह सकता है? [2/5]
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