देश की सुरक्षा का ज़िम्मा जितना
सीमा पर तैनात सेना के जाबांजों का है, उतना या उससे थोड़ा सा ज्यादा ही ऐसी गुप्तचर
सुरक्षा एजेंसियों का भी, जिन्हें गुमनामी के अँधेरे में रहकर हर पल खतरे के साये
में जीना और मरना मंजूर होता है. नीरज पाण्डेय की ‘बेबी’ अगर आपने
देखी हो, तो इन ‘अंडरकवर’ लड़ाकों के काम करने के तरीकों को तो अब तक आप जान ही गए
होंगे? ‘नाम शबाना’ थोड़ा पीछे जाने की कोशिश करती है, कहानी के साथ भी और
इन सीक्रेट एजेंट्स को चुने जाने की कड़ी कार्यवाही को सामने रखने के साथ भी. बहुत
हैरतअंगेज़ है सब कुछ, एक ऐसी रहस्यमयी दुनिया, जहां फिल्मों की मानें तो 5 साल से
एक ऐसी लड़की (तापसी पन्नू) पर पल-पल नज़र रखी जा रही है, जो अपने शराबी बाप की
गैर-इरादतन हत्या के अपराध में सज़ा भुगत चुकी है. नज़र रखने वाले ने लड़की के जाने
कितने फोटोग्राफ्स खींचे होंगे इस दरमियान? ऐसी दुनिया में आपका उम्रदराज़ केबल
वाला (वीरेंद्र सक्सेना) भी ‘रॉ’ का एक अच्छा-खासा सीनियर टाइप ट्रेनर निकल
सकता है, इसीलिए जब वो फ़ोन पर कहे, “मैडम, नया स्कीम चाहिए?’ तो ‘हाँ’ या ‘ना’ बोलने
में पूरा वक़्त लीजिये, क्यूंकि बात सिर्फ आपके केबल कनेक्शन की नहीं है, सवाल सीक्रेट
एजेंट के तौर पर आपके कैरियर का भी है.
हालाँकि चौबीसों घंटे ‘राष्ट्रीय
सुरक्षा’ का जाप करने वाली ये ‘एजेंसी’ अपनी एक उम्मीदवार और उसके साथी पर हो रहे जानलेवा
हमले में सिर्फ इसलिए दखल नहीं देती क्यूंकि अभी तक वो उनकी ‘अपनी’ नहीं हुई है, पर
उसी जानलेवा हमले का बदला लेने के लिए क़ानून की हद से आगे बढ़कर, उसे कातिल बनाने
में कोई कसर नहीं छोड़ती. जाहिर है, इस दुनिया के अपने कायदे क़ानून हैं, और इस
फिल्म की स्क्रिप्ट में जरूरत से कहीं ज्यादा ‘कॉमन सेंस’ की कमी. ‘बेबी’
में तापसी की किरदार शबाना खान महज़ 20 मिनट के लिये परदे पर आती है, और अपने
हाव-भाव-ताव से ताकतवर मर्दों से भरे उस फ्रेम में अपनी जगह बहुत दिलेरी से छीन लेती
है, बना लेती है. ‘बेबी’ में शबाना के उस 20 मिनट वाले रुतबे तक पहुँचने
में ‘नाम शबाना’ ढाई घंटे तक का वक़्त खर्च कर देती है, और फिर भी उसे छू
पाने का दावा पेश नहीं कर पाती. जहां नीरज पाण्डेय की स्क्रिप्ट कहीं भी अपने
आप को गंभीरता से नहीं लेती, वहीँ अपने ढीले-ढाले निर्देशन से शिवम् नायर
पहले तो फिल्म का पूरा पहला हिस्सा सुरक्षा एजेंसी से दूर-दूर रह कर शबाना के निजी
जिंदगी में झाँक-झांक कर निकाल देते हैं और उसके बाद, जब रोमांच का सारा खेल गढ़ने
की बारी आती है तो बेवजह के ‘ट्विस्ट’ परोस कर (प्लास्टिक सर्जरी से चेहरे बदल
लेने वाला विलेन, पृथ्वीराज सुकुमारन) और ‘बेबी’ के किरदारों
का अधपका हवाला देकर (...और सर, ऑपरेशन बेबी कहाँ तक पहुंचा?) मनोरंजन की नैय्या पार
लगाने की कोशिश करने लगते हैं.
न चाहते हुए भी मानना पड़ता है कि
फिल्म में तापसी स्क्रीन पर भले ही सबसे ज्यादा वक़्त के लिए दिखाई देती
हों, भले ही उनकी मौजूदगी परदे पर जरूरी रोमांच बनाए रखने में सौ फीसदी सही साबित
होती हो; नीरज पाण्डेय की चलताऊ स्क्रिप्ट उन्हें अक्षय कुमार
के किरदार से आगे न निकलने देने के लिए बार-बार रोकती है. शबाना जब-जब मुसीबतों
में घिरती नज़र आती है, अक्षय का किरदार उसे बांह पकड़ कर खींचता हुआ बाहर ले
आता है. मुश्किलें जैसे जान-बूझकर आसान ही रखी गयी हों, क्योंकि फिल्म की हीरो
तापसी हैं, अक्षय नहीं. शबाना को सुरक्षा एजेंसी तक लाने वाले अफसर की भूमिका में मनोज
बाजपेई जंचते हैं, पर उनके किरदार की तह में जाने के लिए शायद एक और ‘स्पिन-ऑफ’
की जरूरत अलग से पड़े. कास्टिंग के नजरिये से फिल्म में दो अभिनेताओं को बड़ी चतुराई
से उनके किरदार के लिए चुना गया है. शबाना के बॉयफ्रेंड की भूमिका में ताहेर
शब्बीर जैसे मेहनती, पर कम तजुर्बे और सीमित अभिनय वाले नए कलाकार को, ताकि
तापसी का किरदार उभर कर सामने आये...और विलेन के तौर पर, पृथ्वीराज सुकुमारन.
पृथ्वीराज की मौजूदगी फिल्म के पोस्टर और कैनवस को जरूर बड़ा करती है, पर उन
जैसे मंजे अभिनेता को इस तरह के वाहियात किरदारों में इस्तेमाल कर बॉलीवुड सिर्फ
अपना ही नुक्सान कर रहा है.
आखिर में, ‘नाम शबाना’ अपनी
अधपकी, कच्ची, बचकानी स्क्रिप्ट और दकियानूसी निर्देशन से सही मायनों में ‘बेबी’
की ‘प्रीक्वल’ ही लगती है. ऐसी ‘प्रीक्वल’ जो दो साल बाद नहीं आई हो, दो साल पहले
आई हो. ऐसी ‘प्रीक्वल’ जो अपने इरादों में ही इतनी कमज़ोर, इतनी सुस्त लगती है कि
उसमें ‘बेबी’ का बेंचमार्क छूने भर लेने तक का भी कोई जज़्बा नहीं बचता. फिल्म
में एकाउंट्स पढ़ाने वाले मोहन कपूर की भाषा में कहें तो, “बेबी’
अगर संपत्ति (asset) है तो ‘नाम शबाना’ देनदारी (liability)”! [2/5]
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