‘नाच’ या इस तरह की और
दूसरी लोकविधाएं, जिनमें लड़कियां मंच पर सैकड़ों की भीड़ के सामने द्विअर्थी गानों
पे उत्तेजक लटके-झटके दिखाती हैं; राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में काफी
लोकप्रिय हैं. हमारी फिल्मों ने भी ‘आइटम सॉंग’ के तौर पर इस का पूरा पूरा दोहन
किया है. ऐसे तमाम विडियो आपको इन्टरनेट पर देखने को मिल जायेंगे, जहां अक्सर ‘अश्लीलता’
का सारा नैतिक ठीकरा हम ऐसे ‘नचनियों’ पर फोड़ कर उनके ठीक सामने हवस में लिपटे, लार
टपकाते मर्दों की जमात को भूल जाते हैं. चाहे मंच पर वो अपने आप को कितना भी ‘कलाकार’,
‘सिंगर’ या ‘डांसर’ मानने और मनवाने की कोशिश करते रहें, हममें से ज्यादातर के लिए
हैं तो वो ‘रंडियां’ ही. और ‘रंडियों’ की मर्ज़ी कौन पूछता है? हम मर्द तो बस्स ‘कीमत’
लगाना जानते हैं, उनके जिस्म की कीमत, उनके वक़्त की कीमत, उनके वजूद की कीमत. एक
घंटे का इतना, एक रात का इतना!
अनरकलिया (स्वरा
भास्कर) आरा जिल्ला की सबसे मशहूर कलाकार है. शादी-बियाह के मौके पर उसका
प्रोग्राम न हो, तो सब मज़ा किरकिरा. चाहने वालों में इलाके के थानेदार से लेकर स्थानीय
यूनिवर्सिटी के दबंग वीसी (संजय मिश्रा) तक, सबके नाम शामिल हैं. ‘साटा’ पर
नाचने-गाने वाली को सब अपनी ‘प्रॉपर्टी’ समझते हैं. वीसी साहब तो इतना ज्यादा कि
मंच पर ही उसके साथ जबरदस्ती करने लगते हैं. अनरकलिया देती है एक रख के, वहीँ के
वहीँ, उसी वक़्त! हालाँकि वो खुद कबूलती है कि वो कोई सती सावित्री नहीं है, पर
मर्ज़ी पूछे जाने का हक़ सिर्फ सती सावित्रियों के ही हिस्से क्यूँ? अनारकली शायद हालिया
हिंदी फिल्मों की सबसे सच्ची सशक्त महिला किरदार है. ‘नायिका’ बन कर उभरने के लिए,
वो लेखक के पूर्व-नियोजित नाटकीय दृश्यों की मोहताज़ नहीं है, ना ही अविनाश
उसे कभी इतना असहाय और कमज़ोर पड़ने ही देते हैं. गुंडों से भागते-भागते थककर, जब वो
हाथ में टूटी चप्पल पकड़े रेलवे स्टेशन पर भटक रही होती है, तब भी उसे कहीं से भी
कमज़ोर आंकने की गलती आप नहीं करते! उसके ताव बनावटी नहीं हैं, उसकी ताप ढुल-मुल
नहीं है.
पिछले साल की ‘पिंक’
ने जिस ‘ना’ की आग को बड़ी बेबाकी से परदे पर हवा दी थी, अविनाश दास की ‘अनारकली
ऑफ़ आरा’ उसी आग को एक बार फिर धधका देती है, पर इस बार पहले से कहीं ज्यादा
बेख़ौफ़, बेपरवाह और झन्नाटेदार तरीके से! अविनाश एक नयी धारदार आवाज़ की तरह
अपने शब्दों, अपने चित्रों और अपने किरदारों के साथ आपको हर पल बेधते रहते हैं.
फिल्म बनाते वक़्त अक्सर बड़े-बड़े नामचीन निर्देशक फ्रेम सजाने का मोह छोड़ नहीं
पाते. ‘रियल’ गढ़ने के दबाव में, परदे पर कुछ बेतरतीब भी दिखाना हो, तो थोड़ा सलीके
से. पर अविनाश इन बन्धनों से मुक्त दिखते हैं. उनका एक किरदार जब दूसरी महिला किरदार से बदतमीज़ी
कर रहा होता है, जब कुछ इतना बेरोक-टोक होता है कि आप अन्दर से दहल जाते हैं.
मुट्ठियाँ अपने आप भींच जाती हैं. मल्टीप्लेक्स के ज़माने में, ऐसा कभी-कभी ही होता
है. इस एक फिल्म में कई बार होता है.
‘अनारकली ऑफ़ आरा’
में स्वरा भास्कर एक ज्वालामुखी की तरह परदे पर फटती हैं. अपने किरदार में
जिस तरह की आग और जिस तरीके की बेपरवाही वो शामिल करती हैं, उसे देखकर आप उनके मुरीद
हुए बिना रह नहीं सकते. ये उनका तेज़-तर्रार अभिनय ही है, जो इस फिल्म के ‘साल के
सबसे पावरफुल क्लाइमेक्स’ में आपके रोंगटे खड़े कर देता है. अनारकली का ‘तांडव’,
अभिनेत्री के तौर पर स्वरा भास्कर का ‘तांडव’ है. इसके बाद अब शायद ही आप
उनके अभिनय-कौशल को शक की नज़र से देखने की भूल करें! स्वरा का अभिनय अगर ‘एक्टिंग’
के सिद्धांत को मज़बूत करता है, तो पंकज त्रिपाठी अपने तीखे और तेज़
प्रतिक्रियात्मक अभिनय से चौंकाते और गुद्गुदाते रहते हैं. नाच-नौटंकी में मसखरे
सूत्रधार की भूमिका में उनका आत्म-विश्वास खुल के और खिल के सामने आता है. उन्हें परदे
पर देखते हुए उनकी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि का ख्याल कर के, आप उनके प्रति
आभार और सम्मान से भर उठते हैं. संजय मिश्रा का अभिनय इन सबमें सबसे नाटकीय
लगता है, अपने ‘कैरीकेचर’ जैसे किरदार की वजह से!
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