Friday 4 August 2017

गुड़गांव: कंक्रीट के जंगल, और दो-पाये जानवर! [3.5/5]

शहर के शहर अगर कंक्रीट के जंगल बनते जा रहे हैं, तो उसमें रहने वालों का भी जानवर बनते चले जाना कोई हैरत की बात नहीं. दिल्ली-एनसीआर के ज्यादातर इलाकों में दिन-ब-दिन बढ़ता क्राइम सिर्फ उन्हीं इलाकों, या वहाँ के सनक भरे लोगों के ही मत्थे आसानी से मढ़ा जा सकता है, और ऐसा कर के आप अपना दामन पाक-साफ़ रखने में कामयाब भी हो सकते हैं, पर जिस कठोर सच्चाई के साथ शंकर रमन अपनी फिल्म 'गुड़गांव' में कोयले से भी काली इंसानी फ़ितरत और ताकत की भूख का मिला-जुला तांडव रचते हैं; 'गुड़गांव' महज़ गुड़गांव की कहानी ना रहकर, किसी भी सभ्य समाज की सड़ी-गली, खोखली और बदबूदार नींव खोदने में शामिल हो जाती है. 

भू-माफ़िया केहरी सिंह (पंकज त्रिपाठी) का नाम गुड़गांव की हज़ारों एकड़ जमीनों पर खुदा है. पैसे की मद में डूबे बेटों से उसे कोई उम्मीद नहीं. हाँ, विदेश से पढ़कर लौटी बेटी प्रीत (रागिनी खन्ना) के लिए 25 हज़ार करोड़ का ड्रीम-प्रोजेक्ट पहले से ही तैयार है. शीशे की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से घिरे घर में, दिन-रात शराब का ग्लास हाथों में पकड़े केहरी सिंह अपने फरमान बिना चीखे-चिल्लाये, बिना कुछ तोड़े-फोड़े, शब्दों को दारु के चखने की तरह चबाते हुए सुनाता है, और किसी की मजाल क्या जो चूं-चां भी कर दे. केहरी सिंह के साये में, बड़े बेटे निक्की (अक्षय ओबेरॉय) को सांस लेने के लिए हवा भी कम पड़ने लगी है. सट्टे में 3 करोड़ हारने के बाद, पैसों के इंतज़ाम के लिये अब एक ही रास्ता बचा है, अपनी ही बहन प्रीत का अपहरण. अपनी गोद ली हुई बहन प्रीत का अपहरण. 

शंकर रमन अपने समझदार कैमरावर्क से पहले भी 'फ्रोज़ेन', 'पिपली लाइव' और 'हारुड़' जैसी फिल्मों में प्रभावित करते रहे हैं. वैसे तो चकाचौंध कर देने वाली रौशनी में नहाये गुड़गांव को हमने कई बार परदे पर देखा है, पर रमन 'गुड़गांव' में निहायत सख्त, बर्फ जैसे ठन्डे और लहू जितने गर्म ताव वाले अमीर ताकतवरों की खाल उतारने के लिए एक गहरे अँधेरे का जाल बुनते हैं. किरदार गाड़ियों की हेडलाइट्स से रोशन होते हैं, एस्केलेटर की छत पर साये की तरह चढ़ते-बढ़ते नज़र आते हैं, कूड़े-कचरों के पहाड़ पर विचरते हैं, और उनके चेहरों की रंगत हाईवे की एक के बाद एक गुजरती रोड-लाइट्स के बीच बदलती दिखाई देती है. 

फिल्म 'सत्य घटनाओं पर आधारित' जैसे एलान के साथ शुरू होती है, और इसे मुकम्मल दर्ज़ा देने के लिए रमन ढेर सारी ख़बरों का सहारा लेते हैं, जिन्हें आपने पढ़ के भुला दी होंगी. चाहे वो टोल बूथ पे छुट्टे पैसे मांगने पर गोली मार देने की घटना हो, या पैसों के लिए अपने ही परिवार से किसी का अपहरण. 'गुड़गांव' में हर किरदार अपने भीतर एक खून चखने वाला या चखने की चाह लिए दरिंदा पाले घूम रहा है. कुछ को ये मौका पहले ही मिल चुका है, कुछ नए-नए अभी भी मौके की तलाश में हैं. 15-20 साल पहले तक कच्चे मकान में रहने वाले केहरी सिंह के भी अपने राज़ हैं, जिंदा बेटियों पर मिट्टी दबा देने वाली प्रजाति से आया है वो. निक्की सिंह में भी उसी का खून है, जो पैसे और ताकत के मिले-जुले नशे को जितनी जल्दी हो सके, अपनी टेबल पर रख कर सूंघना चाहता है.

पंकज त्रिपाठी को परदे पर देखना हर बार एक मजेदार अनुभव रहा है. इस बार केहरी सिंह की शख्सियत में उनको देखना आपमें सिहरन भर देता है. बॉलीवुड में खलनायकों को सिर्फ कार्टून या फिर शैतान बनाकर दिखाने की ही परंपरा रही है. बहुत कम बार ही ऐसा हुआ है, जब उन्हें आप एक इंसान की तरह ही पेश करने में कामयाब रहे हों. पंकज त्रिपाठी का केहरी सिंह उन्हीं चंद में से एक है. केहरी सिंह की पत्नी के किरदार में शालिनी वत्स एकदम सटीक हैं और बेहद ईमानदार भी. रागिनी खन्ना के साथ उनके कुछ दृश्य देखने लायक हैं. अक्षय प्रभावित करते हैं, अपनी फिल्मों के चयन से भी और नपे-तुले अभिनय से भी. मेहमान भूमिका में आमिर बशीर बेहतरीन हैं. रागिनी अपने किरदार में जंचती हैं, हालाँकि फिल्म में वो कम वक़्त के लिए ही हैं. 

आखिर में; 'गुड़गांव' नए हिंदी सिनेमा आन्दोलन का एक अहम हिस्सा है. अपराध की फिल्मों का एक ऐसा अलग चेहरा, जो घटनाओं को ताबड़तोड़ खून से रंग देने की बजाय आपको उस अँधेरे माहौल में पहले धकेल देती है, जहां खेल रचने वाला है. हो सकता है, कई बार आप उकता जायें, या घुटन सी होने लगे; पर एक बार जो नशा चढ़ा, दिनों तक उतरेगा नहीं. [3.5/5]                                             

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