Friday 11 August 2017

टॉयलेट- एक प्रेम कथा: सामाजिक सोच की सफाई के लिए राजनीतिक शौच? [2/5]

प्रधानमंत्री जी के 'स्वच्छ भारत अभियान' के दौरान उनके मातहतों के फ़ोटो अक्सर आपने अखबारों में देखे होंगे. साफ़-सुथरी सड़कों पर पहले सूखे पत्ते, कूड़ा-करकट फैलाए जाते हैं, फिर मंत्रीजी खुद झाड़ू लेकर सफाई अभियान में जुट जाते हैं. राजनीति में प्रतीकों का अपना एक स्थान है, चलता है; मगर सामाजिक सन्देश के नाम पर एक जरूरी फिल्म में इसे बरदाश्त कर पाना बिलकुल बस के बाहर की बात है. श्री नारायण सिंह की 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' सफाई करने से पहले खुद ही गंदगी फैलाती है, और गंदगी फैलाने में ही अपना ज्यादा वक़्त जाया करती है. रूढ़िवादी सामाजिक सोच को तोड़ने के लिए राजनीतिक शौच का सहारा लेते हुए 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' एक अच्छी-भली, सच्ची कहानी को मनोरंजक बनाने में खूब लीपा-पोती करती है. 

36 साल के केशव (अक्षय कुमार) की शादी एक 'दूधवाली', 'दूध की डेरी' मल्लिका से हो रही है. मल्लिका एक भैंस है, इसीलिए आपको उसके शारीरिक रूप का बखान करते वक़्त इस तरह के विशेषण मजाकिया लग रहे होंगे, पर जिस द्विअर्थी ज़बान में उस पर सस्पेंस और व्यंग्य कसा जाता है, इंद्र कुमार की सेक्स-कॉमेडी 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती' की याद आनी वाजिब है. हद तो तब हो जाती है, जब एक महाशय ख्यालों में केशव को उसकी मल्लिका (भैंस) के साथ हनीमून मनाते हुए देखने लगते हैं, स्विट्ज़रलैंड की वादियों में एक-दूसरे के बदन से चिपके हुए. यकीनन, यहाँ जरूरत शौच में सफाई की नहीं, सोच में सफाई की है. बहरहाल, मांगलिक दोष से मुक्त होने के इस रिवाज़ के बाद केशव की जिंदगी में जया (भूमि पेडणेकर) आती है. ताड़ने, पीछा करने, छुप-छुप के मोबाइल से फोटो खींचने और दोस्तों के बीच जिक्र करके मज़ा लेने वाले आशिक़ों को जया खरी-खोटी सुनाने का कोई मौका नहीं छोडती, पर जैसे ही केशव से एक झिड़की मिली, उसे भी प्यार के नाम पर यही सब दोहराने में कोई झिझक-कोई शर्म नहीं होती.  

शादी की अगली ही सुबह जब जया को पड़ोस की औरतें 'लोटा पार्टी' ज्वाइन करने का निमंत्रण देतीं हैं, तब कहीं जा के फिल्म वापस पटरी पर आनी शुरू होती है. केशव के घर में टॉयलेट नहीं है. कहाँ तो इस एक बड़ी समस्या को गंभीरता से समझने की जरूरत थी, मगर यहाँ भी श्रीनारायण सिह अति-साधारण दर्जे के 'अक्षय कुमार' मार्का हास्य का कंधा तलाशने लगते हैं. वास्तविक घटना के विपरीत, असली मुद्दे से हटकर जया-केशव तरह-तरह के जुगाड़ों में लगे रहते हैं. कभी पास के रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का शौचालय इस्तेमाल करने की ट्रिक, तो कभी फिल्म-शूटिंग से मोबाइल-टॉयलेट चुराने का प्लान. और अंत में कहीं जाकर, जब अखबारों-न्यूज़ चैनलों के सहारे बात सरकार के कानों तक पहुँचती भी है, तो सब मामला इतनी आसानी से सुलझ जाता है, जैसे कोई बड़ी बात थी ही नहीं. 

पिछले महीने 'इंदु सरकार' और अब 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा'; फिल्मों में किसी एक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार साफ़ नज़र आ रहा है. फिल्म में बड़ी सफाई से बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश में जो ताज़ा 'टॉयलेट-घोटाला' है, वो चार साल पुराना है. नोटबंदी जैसे कड़े फैसले अगर प्रधानमंत्री ले सकते हैं, तो तत्कालीन उत्तर प्रदेश-मुख्यमंत्री क्यूँ पीछे रहें? अक्षय का किरदार भी प्रेस के सामने सरकार के बीच-बचाव की मुद्रा में तैनात नज़र आता है. इतने सब के बाद भी, फिल्म दो-तीन ख़ास मौकों पर 'घर-घर शौचालय' के मुद्दे पर अपना रवैया साफ़-साफ़ और कड़े शब्दों में रखने में कामयाब रहती है. अक्षय और भूमि के लम्बे भाषण भी ऐसे ही कामयाब मौकों का हिस्सा हैं. 

किसी 15-20 मिनट की शार्ट फिल्म में बेहतर कही जा सकने वाली कहानी और उससे जुड़ी सामाजिक-समस्या के तमाम पहलुओं को सामने रखने के लिये, 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' पौने तीन घंटे का समय ले लेती है. 'भारत कुमार' बनने की राह पर निकल पड़े अक्षय बड़ी चालाकी से फिल्मों का चयन तो कर रहे हैं, मगर लगता है कि ड्रामेबाजी से उभरने का कोई रास्ता अभी तक उन्हें सूझा नहीं है. भूमि को इस तरह की भूमिका में पहले भी देख चुके हैं हम. उनमें पूरी क़ाबलियत है आज के ज़माने की दीप्ति नवल बनने की, एक ऐसा अपना सा चेहरा जो घर के आस-पास ही रहता हो. सुधीर पाण्डेय साब को परदे पर बार-बार देखने की चाह एक बार फिर बनी रहती है. अपने वन-लाइनर और कॉमिक-टाइमिंग से दिव्येंदु गुदगुदाने में कामयाब साबित होते हैं. 

आखिर में; 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' किसी सरकारी पैम्फलेट की तरह रंग-बिरंगा भी है, जरूरी मुद्दे भी हैं, मतलब की बातें भी हैं और एक लुभावना चेहरा भी जिसे 'देश' से जोड़ कर देखने की आपको आदत है, पर इस सरकारी प्रचारपत्र को 'टॉयलेट-पेपर' तक  समझने की भूल मत कीजियेगा. अनुपम खेर फिल्म में सबसे समझदार और 'मॉडर्न' बुजुर्ग बने हैं, सनी लिओने के गाने टीवी पर इतरा-इतरा के देखते हैं. अख़बारों के बारे में उनकी एक राय है, "जो रद्दी है, उसे रद्दी में ही जाना चाहिए". 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' भी उन अख़बारों से कुछ ज्यादा अलग नहीं. [2/5]     

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