Friday 25 August 2017

बाबूमोशाय बन्दूकबाज़ (A): गैंग्स ऑफ़ यूपी! [3/5]

देसी कट्टेबाज़ों की जो कच्ची-पक्की दुनिया हमने देखी-सुनी है, अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया और विशाल भारद्वाज की फिल्मों के बदौलत ही है. उत्तर प्रदेश और बिहार की उबड़-खाबड़ ज़मीन में कुकुरमुत्ते की तरह उगते, राजनीतिक सत्ता के हाथों कठपुतली की तरह नाचते और अपराध को 'शक्ति' की सीढ़ी बनाकर बात-बात पर खून की होली खेलते किरदारों में 'नायक' खोजने का दम अब तक इन्हीं चंद फ़िल्मकारों ने दिखाया था. कुशान नंदी की 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' भी परदे पर इन तमाम फ़िल्मकारों और उनकी चर्चित फ़िल्मों का जश्न एक श्रद्धांजलि की तरह पूरी शिद्दत से मनाती है. किरदारों के तेवर, उनका रूखापन, उनकी बेख़ौफ़ ज़बान, कहानी में जिस्मानी प्यार, बेहयाई, बेवफ़ाई और वार-पलटवार की अंधाधुंध रफ़्तार के बीच 'डार्क ह्यूमर' का भरपूर इस्तेमाल; 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' वो सब कर गुजरती है जिसे आप 'गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर' जैसी फिल्मों में कभी दिल खोल कर, तो कभी दबी जुबान में ही सही, सराह चुके हैं. खून का रंग बस्स उतना गाढ़ा नहीं लगता, कहानी में गहरे जज़्बातों से कहीं ज्यादा 'इरादतन' दांव-पेंच ज्यादा नज़र आते हैं और फिल्म दर्शकों के बीच अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश भी नहीं करती. 

बाबू (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी) मौत का 'पोस्टमैन' है. कभी दीदी (दिव्या दत्ता) तो कभी दूबे (अनिल जॉर्ज) से पैसे लेकर लोगों का क़त्ल करता है. हद दर्जे का मर्द आदमी है. बेगैरत और पक्का हरामी. फुलवा (बिदिता बाग़) के साथ उसकी आसान जिंदगी में थोड़ी हलचल तब होती है, जब अपने ही एक जबरदस्त फैन बांके (जतिन गोस्वामी) के साथ उसकी होड़ लगती है कि दिये गये 3 चेहरों में से कौन कितने ज्यादा मारेगा? बाबू के लिए उसकी इज्ज़त, उसका नाम दांव पर है जबकि बांके के लिए एक मौका, अपने आप को अपने गुरु की नज़र में काबिल साबित करने का. मगर इन सब में बहुत कुछ और भी है, जो प्याज के छिलकों की तरह धीरे-धीरे उतरता रहता है. 

गालियाँ देने में मर्दों को टक्कर देने वाली लोकल पॉलिटिशियन दीदी हो, या अपनी ही बीवी को दूसरे मर्द से तेल-मालिश करवाते देखने का रसिया दूबे; 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' रंगीन किरदारों से भरी पड़ी है. लोकल थाने का इंस्पेक्टर (भगवान तिवारी) बेटी की चाह में 6-7 बेटे पैदा कर चुका है. फ़ोन पर लोगों के नंबर गालियों के नाम से रखता है. बीच शूटआउट के बीच बीवी का फ़ोन लेना नहीं भूलता, और फ़ोन रखने से पहले 'आया, तो ले आऊँगा' कहना. इस एक किरदार में ही आपको इतनी रंगीनियत मिलती है, कि परदे पर हर बार आते ही आप चौकन्ने हो जाते हैं. फिल्म का 'डार्क ह्यूमर' गज़ब है. आखिर के एक सीन में, एक महिला किरदार बियाबान में अपनी मौत का इंतज़ार कर रही है, और घर पर उसका बूढ़ा ससुर उसे खोजते हुए चिल्ला रहा है, "कहाँ मर गयी?". 

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी की अदाकारी और इस तरह की भूमिकाओं में उनकी पूरी पकड़ होने के अलावा, फिल्म अपनी ज़मीन से जुड़े रहने की कोशिश में उभर कर सामने आती है. मोटरसाइकिल पर एक पुलिसवाला आ रहा है, मगर पीछे बैठा हुआ. चलाने वाला एक 12-14 साल का लड़का है. बाबू जब 'काम' पर नहीं होता है, खेतों के बीचोंबीच बने अपने घर के बाहर-भीतर लुंगी और शर्ट में घूम रहा होता है. हालाँकि फिल्म पर 'गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर' की छाप इस कदर है कि हर वक़्त आप दोनों फिल्मों के दृश्य मिला कर देखने में ही उलझे रहते हैं. चाहे वो हाथापाई, गुत्थमगुत्थी के रीयलिस्टिक फाइट-सीन हों, या 'तार बिजली से पतले हमारे पिया' की तर्ज़ पर टिन के कनस्तर बजाते-गाते लोकगीत की बनावट.   

आखिर में; 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' लव, सेक्स और धोखा के तमाम प्रसंगों के बीच ठेठ मर्द किरदारों की कहानी में पैरवी भले ही करता हो, अंत तक आते-आते सशक्त और चालाक औरतें ही फिल्म पर हावी रहती हैं. इनमें से ज्यादातर किरदार और प्रसंग फिल्म की कहानी में रहस्य का विषय हैं, इसलिए यहाँ विस्तार से लिखना थोड़ी ज्यादती होगी. 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' में बहुत कुछ मनोरंजक है, बहुत कुछ 'गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर' जैसा. हाँ, बेहतर होता अगर थोड़ी गहराई भी होती, और थोड़ी बहुत अलग 'अपने' जैसी. [3/5]     

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