Friday, 6 October 2017

तू है मेरा सन्डे: महानगरों का मजेदार 'मिडिल क्लास'! [4/5]

एक अरसा हुए हिंदी सिनेमा में भारत के 'मिडिल क्लास' को परदे पर छोटी-छोटी खुशियों के लिए कसमसाते देखे हुए; वो भी निचले, शोषित तबके पर बनती फिल्मों की तरह गहरी सहानुभूति और प्रबल संवेदनाओं की उदास चाह में नहीं, ना ही सितारों की जगमगाहट से चुंधियाई आँखों में महंगे-महंगे सपने बेचने की झूठी कोशिश में, बल्कि मनोरंजन के उस ईमानदार ख़याल के जरिये, जहां परदे की जिंदगी से असल जिंदगी का मिलान तकरीबन-तक़रीबन एक ही स्तर पर हो. हालाँकि बासु चटर्जी और हृषिकेश मुखर्जी का 'मिडिल क्लास' अब चाहते, न चाहते हुए भी 'अपर मिडिल क्लास' में बदल चुका है, पर दिक्कतें, झिझक, चाहतें और ज़ज्बात अब भी उसी दायरे, उसी जायके के हैं. 

मिलिंद धैमड़े की 'तू है मेरा सन्डे' मुंबई जैसे महानगर में भी इस आम से दिखने वाले तबके को न सिर्फ ढूंढ पाने का कौशल दिखाती है, बल्कि उसकी जिंदगी से उन चंद लम्हों को चुराने में भी कामयाब रहती है, जिन्हें परदे पर देखने और उनसे अनायास लगाव महसूस करने में कोई दिक्कत, कोई परेशानी महसूस नहीं होती. यहाँ एक 'सन्डे' ही अपना है. हफ्ते के बाकी दिन हर कोई कहीं न कहीं अपनी हसरतों, अपनी आजादियों, अपनी चाहतों का खुद अपने ही हाथों गला घोंट रहा होता है. एक 'सन्डे' ही है, जब दोस्तों के साथ दोपहर भर फुटबॉल खेलने और शाम को चखने के साथ बियर की बोतल गटकाने का सुख वापस उस 'हफ्ते के बाकी दिनों' वाली दुनिया में जाने की हिम्मत और उम्मीद दे पाती है. और अगर वही उनसे छिन जाये तो? 

मुंबई की लोकल ट्रेनों में अगर आप रेगुलर आते-जाते रहे हों, तो 'तू है मेरा सन्डे' के किरदारों से जान-पहचान बनाना बेहद आसान हो जाता है. दोस्तों की एक ऐसी टोली, जहां 50 साल के गुजराती अंकल भी 23 साल के हीरो को 'भाई' कह के बुलाते हैं, और वो उनकी बीवी को 'भाभी'. 'तू है मेरा सन्डे' ऐसे ही पांच दोस्तों की जिंदगियों में पूरी बराबरी से और बारी-बारी से झांकती है. फिल्म अपने पहले ही दृश्य में आपको अपने होने के काफी कुछ मायने समझा जाती है. कूड़े और कबाड़ में अपने लिए कुछ मतलब का ढूंढते-तलाशते एक बूढ़े भिखारी पर एक आवारा कुत्ता भौंके जा रहा है, फुटओवर ब्रिज पर खड़े पाँचों दोस्त इसे अपनी-अपनी जिंदगियों से जोड़ कर देखने लगते हैं, और खुद पर हँसते भी हैं. कोई अपने खडूस, घटिया बॉस से तंगहाल है, तो किसी को घर-परिवार की झंझटों से 'कंटाल' आता है. सबके लिए एक 'सन्डे और फुटबॉल' का मेल ही है, जो उन्हें अपने होने का, जिंदगी जीने का सही एहसास दिलाता है. 

एक ईमानदार और मनोरंजक फिल्म के तौर पर, 'तू है मेरा सन्डे' आपको महानगरों की भागती-दौड़ती भीड़ में रिश्तों की घटती गर्माहट जैसे छू जाने वाले मुद्दों पर बहुत ख़ूबसूरती और मासूमियत से पेश आती है. शहाना गोस्वामी को छोड़ दें, तो फिल्म बड़े नामचीन सितारों से बचने की कामयाब कोशिश के चलते, पहले तो परदे पर और बाद में दर्शकों के दिल-ओ-दिमाग़ में किरदारों को ज्यादा देर तक जिंदा रख पाती है. हालाँकि इन किरदारों और उनके आसपास के माहौल में आपको 'दिल चाहता है', 'रॉक ऑन' जैसी कुछ फिल्मों की जानी-पहचानी झलक जरूर दिख जाती है, पर जिस तरह की समझदारी से फिल्म अपने मुकाम तक पहुँचती है, आप इसे एक अलग फिल्म के नजरिये से ही पसंद करने लगते हैं. 

मजेदार किरदारों और ढेर सारे अच्छे दृश्यों के साथ, 'तू है मेरा सन्डे' देखते वक़्त आपके चेहरे पर एक हलकी मुस्कान हमेशा तैरती रहती है. अल्जाइमर से जूझते किरदार की भूमिका में शिव सुब्रह्मनियम का अभिनय बेहतरीन है. बरुण सोबती टीवी का जाना-माना नाम है. फिल्म के दृश्य में शहाना की किरदार उनसे कहती है, 'आप पर मेलोड्रामा सूट नहीं करता'; बरुण सिनेमाई परदे पर ज्यादा निखर कर आते है, कुछ ऐसे कि जैसे बने ही हों बड़े परदे के लिए. उम्मीद करूंगा कि हिंदी सिनेमा उन्हें वापस टीवी के डब्बे में यूँ ही खो जाने नहीं देगा. शहाना का परदे से सालों गायब रहना खलता है और उनका परदे पर दिख जाना भर ही अदाकारी में उनके मज़बूत दखल की याद ताज़ा कर जाता है. मानवी गागरू और रसिका दुग्गल अपने अपने किरदारों में जरूरत के सारे रंग बराबर नाप-जोख कर डालती हैं, और बेशक फिल्म के सबसे खुशनुमा चेहरों में शामिल हैं.

आखिर में; 'तू है मेरा सन्डे' हिंदी सिनेमा को एक नया विस्तार देने में बड़ी फिल्म साबित होने का पूरा माद्दा रखती है. 'पैरेलल सिनेमा मूवमेंट' और 'मेनस्ट्रीम मसाला' फिल्मों के बीच, याद कीजिये, कभी साफ़-सुथरी, सरल-सहज, सुगढ़ फिल्मों का एक और दौर दिलों में अपनी जगह बनाया करता था, टीवी पर आते हुए जो आज भी  सालों-साल आपके मनोरंजन की रंगत फीकी नहीं पड़ने देता; 'तू है मेरा सन्डे' उन्हीं तमाम अपनी सी लगने वाली फिल्मों में से एक है. [4/5] 

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