Friday, 29 September 2017

जुड़वा 2: सिनेमा के साथ कॉमेडी; कॉमेडी के साथ ट्रेजेडी! [1/5]

डेविड धवन की 'जुड़वा 2' देखते वक़्त, दो लोगों पर बेहद तरस आता है. एक तो विवान भटेना पर, जो फिल्म में खलनायक के तौर पर सिर्फ पिटने के लिए रखे गए हैं. शरीर के बाकी हिस्सों को नज़रंदाज़ कर भी दें, तो फिल्म में विवान के सर पर ही, कभी नारियल से, तो कभी फुटबाल से इतनी बार प्रहार किया जाता है, कि उन्हें दो-दो बार अपनी याददाश्त खोनी पड़ती है. इतनी ही बुरी हालत से मैं भी खुद को गुजरता हुआ पाता हूँ, जब मनोरंजन के नाम पर डेविड धवन मुझे वापस वही 20 साल पुरानी फिल्म चिपका डालते हैं, उन्हीं पुराने 'जोक्स' के साथ और उसी सड़ी-गली वाहियात कहानी के साथ. डेविड की मानें तो 'ऐसा केस 8 मिलियन में सिर्फ एक होता है', हम 80 के दशक में पैदा हुए बदनसीबों के साथ 'जुड़वा' जैसा केस 20 साल में दो-दो बार हुआ है; मुझे नहीं पता इन दोनों फिल्मों से सही-सलामत जिंदा बच जाने का जश्न मनाऊँ या झेलने का मातम? 

बॉलीवुड का एक ख़ास हिस्सा बार-बार बड़ा होने से और समझदार होने से इनकार करता आ रहा है. डेविड धवन भी उनमें शामिल हो चले हैं. डेविड के लिए मनोरंजन के मायने और तौर-तरीके अभी भी वही हैं, जो 20-25 साल पहले थे. हंसी के लिए ऐसी फिल्में मज़ाक करने से ज्यादा, किसी का भी मज़ाक बनाने और उड़ाने में ख़ासा यकीन रखती हैं. तुतलाने वाला एक दोस्त, 'तोतला-तोतला' कहकर जिस पे कभी भी हंसा जा सके. 'पप्पू पासपोर्ट' जैसे नाम वाले किरदार जो अपने रंगभेदी, नस्लभेदी टिप्पणी को ही हंसी का हथियार बना लेते हैं. लड़कियों को जबरदस्ती चूमने, छेड़ने और इधर-उधर हाथ मारने को ही जहां नायक की खूबी समझ कर अपना लिया जाता हो, अधेड़ उम्र की महिलाओं को 'बुढ़िया' और 'खटारा गाड़ी' कह के बुलाया जाता हो. मनोरंजन का इतना बिगड़ा हुआ और भयावह चेहरा आज के दौर में भी अगर 'चलता है', तो मुझे हिंदी सिनेमा के इस हिस्से पर बेहद अफ़सोस है.

प्रेम और राजा (वरुण धवन) बचपन में बिछड़े हुए जुड़वा भाई हैं. एक मुंबई के वर्सोवा इलाके में पला-बढ़ा टपोरी, तो दूसरा लन्दन का शर्मीला, कमज़ोर पढ़ाकू टाइप. फिल्म मेडिकल साइंस के उस दुर्लभ किंवदंती पर पनपती है, जहां दोनों भाई एक-दूसरे के साथ अपने दिमाग़ी और शारीरिक प्रतिक्रियाएं आपस में बांटते हैं. एक जैसा करेगा, दूसरा भी बिलकुल वैसा ही. फिल्म अपनी सुविधा से इस फ़ॉर्मूले को बड़ी बेशर्मी से जब चाहे इस्तेमाल करती है, जब चाहे भूल जाती है. जो हाथ किसी को मारते वक़्त एक साथ उठते हैं, वही रोजमर्रा के काम करते वक़्त एक साथ क्यूँ नहीं हिलते-डुलते? पर फिर डेविड धवन की फिल्म से इस तरह के तार्किक प्रश्नों के जवाब माँगना अपने साथ बेवकूफी और उनके के साथ ज्यादती ही होगी. जिन फिल्मों में टाइम-बम अपने आखिरी 10 सेकंड में फटने वाला हो, और हीरो लाल तार (क्यूंकि लाल रंग गणपति बप्पा का रंग है) काट के अपने लोगों को बचा ले; ऐसी फिल्मों को पूरी तरह 'बाय-बाय' करने का सुख आखिर हमें कब मिलेगा?

थोड़ा सोच कर देखें, तो 'जुड़वा 2' भद्दे हंसी-मज़ाक के लिए हमारे पुराने, दकियानूसी स्वभाव को ही परदे पर दुबारा जिंदा करती है. रंग, बोली, लिंग और शारीरिक बनावट के इर्द-गिर्द सीमित हास्य की परिभाषा को हमने ही अपनी निज़ी जिंदगी में बढ़ावा दिया है और देते आये हैं, फिर डेविड या उन जैसों की फिल्में ही क्यूँ कटघरे में खड़ी हों? नायक अगर नायिका की माँ से फ़्लर्ट करे, उनको गलती से किस कर ले और नायिका की माँ अगर उस पल को मजे से याद करके इठलाये, तो इसे डेविड का उपकार मानिए और एक प्रयोग की तरह देखिये. अगर आपको इस इकलौते दृश्य पर ठहाके के साथ हंसी आ जाये, तो समझिये कुछ बहुत गलत चल रहा है आपके भीतर, वरना आप अभी भी स्वस्थ हैं, सुरक्षित हैं. 

अभिनय में वरुण बेहद उत्साहित दिखते हैं. 'जुड़वा' के सलमान खान की झलक उनमें साफ़ नज़र आती है. उनमें एक ख़ास तरह का करिश्मा, एक ख़ास तरह की जिंदादिली है, जो बुरे से बुरे दृश्य में भी आपको उनसे कभी उबने नहीं देती, पर इस तरह की खराब फिल्म में सिर्फ इतने से ही बचा नहीं जा सकता. तापसी पन्नू और जैकलीन फ़र्नान्डीस अदाकारी में महज़ दिखावे के लिए हैं, वरना तो उनकी अदाकारी उनके 'फिगर' जितनी ही है, 'जीरो'. यूँ तो हंसी के लिए राजपाल यादव, अली असगर, उपासना सिंह, अनुपम खेर जैसे आधे दर्जन नाम फिल्म में मौजूद रहते हैं, पर उन पर भी कुढ़ने और चिढ़ने से ज्यादा फुर्सत नहीं मिलती. 'सुनो गणपति बप्पा मोरया' गाने के 'सिग्नेचर स्टेप' में वरुण के ठीक बायीं ओर डांस करने वाली 'एक्स्ट्रा' कलाकार अपने हाव-भाव से, आपके चेहरे पे मुस्कान लाने में कहीं ज्यादा कामयाब होती है, बजाय इस बेमतलब उछलने-कूदने वाले 'ब्रिगेड' के.     

कुल मिला कर, 'जुड़वा 2' को मनोरंजन के साथ किसी भी तरह से जोड़ कर देखना सिनेमा के लिए बड़ा शर्मनाक होगा. कुछ मजेदार 'जोक्स' को परदे पर एक के बाद एक चला देना, अपने आप में कॉमेडी के लिए ही एक ट्रेजेडी है. आने वाले दिनों में बॉक्सऑफिस कलेक्शन के भारी-भरकम आंकड़ों से आपको भरमाने की कोशिश होगी, मनोरंजन की गारंटी का वादा किया जाएगा; आपको बहकना चाहते हैं तो बेशक बहकिये, पर कम से कम बच्चों को तो दूर ही रखियेगा. एक 'जुड़वा' से हमें उबरने में सालों-साल लग गए, इस 'जुड़वा 2' का न जाने क्या असर होगा नयी पीढ़ी पर? [1/5]                 

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