Friday 20 October 2017

गोलमाल अगेन: न लॉजिक, न मैजिक! [1.5/5]

हिंदी फिल्मों में कॉमेडी का स्तर कुछ इस तलहटी तक जा पहुंचा है, कि रोहित शेट्टी की नयी फिल्म 'गोलमाल अगेन' देख कर सिनेमाहॉल से निकलते हुए ज्यादातर सिनेमा-प्रेमी एक बात की दुहाई तो ज़रूर देंगे, "कम से कम फिल्म में फूहड़ता तो कम है, हंसाने के लिए द्विअर्थी संवादों का इस्तेमाल भी तकरीबन ना के बराबर ही है". हालाँकि जो मिलता है, उसी से समझौता कर लेने और संतुष्ट हो जाने की, हम दर्शकों की यही प्रवृत्ति ही 'गोलमाल' की गिरती साख (जो पहली फिल्म से शर्तिया तौर पर बनी थी) और हंसी के लगातार बिगड़ते ज़ायके के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है. सिर्फ अश्लीलता न होने भर की वजह से 'गोलमाल अगेन' को 'पारिवारिक' और 'मनोरंजक' कह देना महज़ एक बचकानी टिप्पणी नहीं होगी, बल्कि हमारी कमअक्ली का एक बेहतरीन नमूना भी. 

वैसे हंसी के लिए यहाँ भी कम सस्ते हथकंडे नहीं अपनाये जाते. गुस्सैल नायक के ऊपर उठने वाली ऊँगलियाँ करारी भिंडियों की तरह बार-बार तोड़ी जाती हैं. दुश्मन को 'धोने' के लिए उसे वाशिंग मशीन में डाल कर घुमाया जाता है. और तुर्रा ये कि ऐसा करते वक़्त दीवार पर चार्ली चैपलिन की तस्वीर तक दिखाई जाती है, मानो हालातों के मारे चैपलिन अभिनीत किरदारों के मुसीबत में घिरने से पैदा होती कॉमेडी की तुलना इन अधपके दृश्यों से की जा रही हो. थप्पड़ों की तो पूछिए ही मत! कब, किसने, किसको और कितनी बार मारा, दर्शकों के लिए एक रोचक जानकारी (फन फैक्ट) के तौर पर सवाल की तरह पेश किया जा सकता है; ठीक वैसे ही जैसे 'मैंने प्यार किया' फिल्म के 'कबूतर जा जा जा' गाने में 'जा' शब्द कितनी बार आया है? या फिर 'एक दूजे के लिए' फिल्म के एक ख़ास गाने में कितनी फिल्मों के नाम शामिल हैं? 

फ्रेंचाईज़ फिल्मों में पैर जमाये बैठे, रोहित शेट्टी 'गोलमाल' सीरीज की इस नयी फिल्म में हॉरर-कॉमेडी का तड़का लगाने के लिए एक अच्छी-खासी कहानी कहने की कोशिश करते हैं, जो अपने आप में और उनकी फिल्मों के लिए भी बड़ी हैरत और हैरानी की बात है. एक अच्छी सूरत और अच्छे दिल वाला भूत (मैं नहीं बता रहा, पर अंदाज़ा लगाना इतना मुश्किल भी नहीं है) अपनी मौत का बदला लेना चाहता है. खलनायकों की नज़र एक अनाथाश्रम की ज़मीन हडपने पर है. भूत को अपना बदला लेने और अनाथाश्रम बचाने के लिए अनाथ नायकों की टोली (अजय, अरशद, श्रेयस, तुषार, कुनाल) के मदद की जरूरत है, और इसमें उसका साथ दे रही हैं तब्बू.

फिल्म की खामियों में इस बार 'कहानी का न होना' शामिल नहीं है, बल्कि कमज़ोर कहानी की कमज़ोर बुनियाद पर स्क्रिप्ट की भारी-भरकम इमारत खड़ी करने का अति आत्म-विश्वास ही फिल्म को और डांवाडोल कर देता है. मकान में भूत है. अन्दर कुछ लोग कैद हैं, और बारी-बारी से एक के बाद एक तीन लोग, जिन्हें भूतों पर विश्वास नहीं अन्दर जाते हैं. फिल्म में यह दृश्य चलता ही रहता है, जैसे ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता. भूत आखिर में खलनायकों को अपने हाथों खुद ही अंजाम तक पहुंचाता है, तो फिर बेकार-बेरोजगार नायकों की टोली की जरूरत क्यूँ कर थी? जहां तक कॉमेडी की बात है, 'गोलमाल अगेन' उन फिल्मों में से है, जो जोक्स पर ज्यादा भरोसा दिखाती हैं, हास्यास्पद घटनाओं पर कम. फिर भी वो दृश्य, जिनमें अजय और परिणीति के उम्र के अंतर का बार बार मज़ाक उड़ाया जाता है, हर बार सटीक बैठता है. जॉनी लीवर का स्टैंड-अप एक्ट बढ़िया है. फिल्म का सबसे मज़बूत हिस्सा होते हुए भी, नाना पाटेकर की मेहमान और विशेष भूमिका के बारे में काश मैं यहाँ ज्यादा कुछ लिख पाता! फिल्म में उनको इतने मजेदार तरीके से पिरो पाना रोहित का सबसे कामयाब दांव है, हालाँकि शुरूआती दौर में रोहित की ये कामयाबी तब्बू के मामले में आई लगती थी.         

आखिर में; तब्बू का किरदार ही फिल्म की कहानी का सूत्रधार है. रोहित उनके मुंह से '...इसके बाद उनकी जिंदगी बदलने वाली थी' 'भगवान की मर्ज़ी हो, तो लॉजिक नहीं मैजिक चलता है' जैसे जुमले जी भर के उछालते हैं, और इसी बहाने अपनी फिल्म में 'लॉजिक' न ढूँढने का जैसे अल्टीमेटम भी दे ही डालते हैं. इसीलिए भूतियापे की इस बेहद सादी और बासी कहानी में ढूंढना हो तो बस्स हंसी ढूंढिए, मुझे तो 2 घंटे 30 मिनट की फिल्म में गिनती के 5-6 बार ही ऐसे मौके दिखे और मिले; क्या पता? आप शायद मुझसे ज्यादा खुशनसीब निकलें. [1.5/5]         

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