दोस्त चू**या हो गया है. शादी करने जा रहा है. होने वाली बीवी ने खुद कबूल किया है कि वो 'चालू' है. हालाँकि उसके 'चालू' होने की शर्त और हदें कितनी दूर तक पसरी हैं, फिल्म के निर्देशक और लेखक बताने की जेहमत तक नहीं उठाते. फिर भी वो 'चालू' है, और शायद इसलिए भी क्यूंकि बदकिस्मती से वो लव रंजन के फिल्म की नायिका है. अब दूसरे दोस्त का फ़र्ज़ तो बनता है कि वो अपने दोस्त को उस 'चालू' लड़की के चंगुल में जाने से बचाए. प्यार के पंचनामा में महारत हासिल करने के बाद, लव रंजन 'सोनू के टीटू की स्वीटी' में इस बार 'ब्रोमांस' का पंचनामा करने उतरे हैं. सूरत और सीरत में, लड़की और दोस्त के बीच की ये लड़ाई बड़े परदे पर सास-बहू के झगड़ों और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की साजिशों जितनी ही बेकार, वाहियात और बासी लगती है. कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि आम लोगों के आम मनोरंजन का स्वाद समझ लेने की इस कमअक्ल अकड़ और दकियानूसी धर-पकड़ के चलते, लव रंजन बड़ी जल्दी फ़िल्मी परदे के एकता कपूर बन चुके हैं.
सोनू (कार्तिक आर्यन) अपने बचपन के दोस्त टीटू (सनी सिंह) को गलत लड़कियों के चक्कर में फंसने से हमेशा बचाता आया है. अब जब टीटू कुछ ज्यादा ही अच्छी लगने-दिखने-बनने वाली स्वीटी (नुसरत भरुचा) से शादी करने की ठान चुका है, सोनू को शुरू से ही कुछ गलत होने का अंदेशा लगने लगा है. दोस्त को बचाने की जुगत जल्द ही मर्द और औरत के बीच की लड़ाई में बदल जाती है, और धीरे-धीरे इस लड़ाई में भारतीय टेलीविज़न के मशहूर सास-बहू धारावाहिकों जैसे पैंतरे आजमाए जाने लगते हैं. दोनों एक-दूसरे को खूब टक्कर दे रहे हैं. सोनू ने टीटू को उसकी पुरानी गर्लफ्रेंड के साथ बाहर घूमने भेज दिया है. सोनू जीत की तरफ बढ़ रहा है. टीटू से स्वीटी को उसकी फेवरेट पेस्ट्री मंगवानी थी, सोनू ने टीटू को बताया ही नहीं. सोनू पक्का बाजी मार ले जाएगा, पर ये क्या? टीटू तो बिना कहे ही पेस्ट्री ले आया. अब स्वीटी स्लो-मोशन में चेहरे पर विजयी मुस्कान लिए फ्रेम से बाहर जा रही है.
अपनी 'पंचनामा' सीरीज से लेखक-निर्देशक लव रंजन युवाओं में वो पैठ बना चुके हैं, जहां लड़कियों को बेवकूफ़ और उनके साथ प्यार में पड़ने को 'चू**यापा' बोल कर बड़ी आसानी से हंसा जा सकता है. एक पैसे का दिमाग खर्च करने की जरूरत नहीं, और लड़कियों के प्रति अपनी घिसी-पिटी नफरत को बार-बार एक ही तरीके से परोस कर पैसे बनाने का फार्मूला भी तैयार. जाने-अनजाने लव अपनी फिल्म में इस 'टाट में पैबंद' वाले नुस्खे को ज़ाहिर भी कर देते हैं, जब करोड़ों के फ़र्नीचर से सजे-धजे बंगले के छत वाले कमरे में चारपाइयां पड़ी दिखाई देती हैं. कहने को तो इसे अपनी संस्कृति से बचे-खुचे लगाव की तरह भी देखा जा सकता है, पर मैं उसे मर्दों की दकियानूसी मानसिकता का प्रतीक मानता हूँ, जो फिल्म के मूल में बड़े गहरे तक धंस के बैठा है. यही वजह है, जो फिल्म के अंत को भी अर्थ देने से लव रंजन को रोक देती है. हर 'ब्रोमांस' का अंत 'होमोसेक्सुअलिटी' से जुड़ा नहीं हो सकता, पर जब आप खुद प्रयोग करने को आतुर हैं, तो इस झिझक को तोड़ने से परहेज कैसा? (फिल्म का अंत देख कर इस विषय पर बात करना ज्यादा जायज़ रहेगा).
अदाकारी में, कार्तिक आर्यन अपने करिश्माई व्यक्तित्व से पूरी फिल्म में छाये रहते हैं. शुरू के एक दृश्य में आप उन्हें 'पंचनामा' वाला कार्तिक समझने की भूल जरूर कर बैठते हैं, पर धीरे-धीरे फिल्म ज्यादा उस ढर्रे पर सरकने लगती है, जबकि कार्तिक वहीँ ठहर कर अपने आप को संभाल लेते हैं. सनी और नुसरत से कोई ख़ास शिकायत नहीं रहती. हाँ, आलोकनाथ को अपने 'संस्कारी' चोले से बाहर निकल कर परदे पर फैलते देखना मजेदार लगता है. ब्रोमांस का चेहरा जिस संजीदगी से 'दिल चाहता है' में उकेरा गया था, 17 साल बाद 'सोनू के टीटू की स्वीटी' तक आते-आते भोथरा हो गया है. अच्छा होता, फिल्म एक वेब-सीरीज के तौर पर सामने आती. कम से कम 'स्किप' कर जाने का अधिकार तो अपने ही हाथ रहता! पर शायद, तब पुराने गानों को रीमिक्स करके बड़े परदे पर धमाल मचाने का सुख निर्माता-निर्देशकों से जरूर छिन जाता. [1/5]
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