हिंदी फिल्मों में 'हॉरर' अपने हर दौर में अक्सर किसी एक ख़ास नाम या बैनर के खूंटे से बंध कर रहा है. रामसे ब्रदर्स की भूतिया हवेलियों से रामगोपाल वर्मा के शहरी मकानों और भट्ट कैंप के इन्तेहाई खूबसूरत यूरोपियन मेंशन्स तक; 'हॉरर' के साथ सबने अपने-अपने लैब में जब भी चीर-फाड़ की, फ़ॉर्मूले हमेशा एक से ही रहे. यही वजह है कि '13B', 'एक थी डायन' और हाल-फिलहाल की 'द हाउस नेक्स्ट डोर' जैसी थोड़ी सी भी अलग और नये लिहाज़ की डरावनी फिल्में उम्मीदों का पहाड़ खुद ज्यादा ही बड़ा कर देती हैं. प्रोसित रॉय की 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' ऐसी ही एक हॉरर फिल्म है, जिस पे 'हॉरर' के किसी भी पुराने कारखानों की कोई मोहर या छाप नहीं दिखाई देती. हालाँकि खामियों की फेहरिस्त भी कुछ कम बड़ी नहीं, पर 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' अपने नए अंदाज़ से न सिर्फ आपको डराती है, ज्यादातर वक़्त चौंकाती भी है.
डरावनी फिल्मों में अंधविश्वास, लोक कथाओं और पुरानी मान्याताओं का बोलबाला रहता ही है. ऐसी फिल्मों में, ऐसी फिल्मों से तार्किक या वैज्ञानिक होने की उम्मीद करना अपने आप में एक भुलावे की स्थिति है. प्रोसित भी अपनी पहली फिल्म के तौर पे 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' में दकियानूसी होने से परहेज़ नहीं करते. डराने की मूलभूत जरूरत को पूरा करने के लिए, वक़्त-बेवक्त यहाँ भी बिजलियाँ कड़कती हैं, खिड़कियाँ खड़कती हैं, कंधे पे हाथ रखते ही डरावने चेहरे पलट कर आखों तक चले आते हैं और बैकग्राउंड में एक उदास आवाज़ धीमे-धीमे लोरियां सुनाती रहती है, पर इस बार की कहानी सतही तौर पर दकियानूसी होने के बावजूद, अपने आप में 'और भी' बहुत कुछ कहने की गुंजाईश बाकी रखती है.
बांग्लादेश के एक ख़ास हिस्से में एक ख़ास नस्ल को मिटाने की मुहीम चल रही है. नहीं, इसका रोहिंग्या मुसलामानों से कोई लेना देना नहीं है. हालाँकि बात जिन्नों की है, और जिन्न भी इसी ख़ास महज़ब में अपनी पैठ ज्यादा रखते हैं. इफरित नाम का एक ख़ास जिन्न है, जो अपनी नस्ल बढ़ाने के लिए औरतों का सहारा लेता है. प्रो. कासिम अली (रजत कपूर) ढूंढ-ढूंढ के ऐसी औरतों का गर्भपात करते-कराते हैं. रुखसाना (अनुष्का शर्मा) ऐसी ही एक नाजायज़ पैदाइश है, जिसे पेरी या परी कहा जाता है. नानी की कहानियों वाली नेकदिल परी नहीं, बल्कि ऐसी जिसकी फ़ितरत ख़ूनी वैम्पायरों जैसी दिल दहलाने वाली हो. बहरहाल, एक एक्सीडेंट में अपनी माँ को खोने के बाद रुखसाना आजकल अरनब (परमब्रत चैटर्जी) के यहाँ पनाह ले रही है.
ऐसे समाज में जहां औरतों को डायन कह कर मार दिया जाता हो, अनचाहे गर्भ को गिराने के लिए इंसानियत गिरा दी जाती हो; प्रोसित डर के बाज़ार को गर्म रखने के लिए ऐसे ही प्रतीकों का सहारा तो बखूबी लेते हैं, पर इनको लेकर किसी तरह की कोई ठोस या गहरी बात कहने में चूक जाते हैं. फिल्म के आखिर तक आते आते, रुखसाना के किरदार के साथ दर्शकों की सहानुभूति बनाने की जोर-आजमाईश में फिल्म थोड़ी भटकती जरूर नज़र आती है, और उलझती भी; लेकिन अपने बेहतर कैमरा-वर्क, खूबसूरत आर्ट-डायरेक्शन और अनदेखे अंदाज़ की वजह से 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' उन पलों में भी एक खूबसूरत फिल्म की तरह पेश आती है, जिन पलों में उसपे डराने का कोई बोझ या दबाव नहीं होता. पर्दों के पीछे सायों का लिपटना और चिपटना क्या ही बेहतर दृश्य है!
...और अब जिक्र अनुष्का का. फिल्म की सबसे दमदार कड़ी. हिंदी फिल्मों में 'हॉरर' को आसान कमाई और कम खतरे वाला कदम माना जाता है. ऐसे में 'हॉरर' के साथ इस तरह का नया प्रयोग करने के लिए, अनुष्का (फिल्म की निर्माता के तौर पर) को बधाई मिलनी ही चाहिए. रही बात उनके अभिनय की, तो अनुष्का उन दृश्यों में ज्यादा प्रभाव छोड़ती हैं, जिनमें उन्हें संवादों के सहारे नहीं रहना होता. फिल्म में खून-खराबा भी खूब है, पर असल टीस आपको अनुष्का के किरदार के दर्द से ही उठती है. उनकी आँखों की चमक ही कितनी बार आपको सिहरा जाती है. रजत कपूर शानदार रूप से दिल की धडकनें बढ़ाते रहते हैं. परमब्रत 'कहानी' के अपने किरदार के आस-पास ही रह जाते हैं. उतने ही सजीले, शर्मीले और सधे हुए.
आखिर में, 'परी- नॉट अ फेयरीटेल' डरावनी फिल्मों में कहानी पिरोने की एक कोशिश के तौर पर सराही जानी चाहिए. एक ऐसी फिल्म, जो जेहनी तौर पर थोड़ी और बेहतर, थोड़ी और काबिल हो सकती थी, पर डर के लिए एक कसा हुआ माहौल गढ़ने में जो कहीं से भी चूकती नहीं. [3/5]
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