Friday 16 February 2018

अय्यारी: लम्बी, उबाऊ, नीरस! [2/5]

गनीमत है कि हिंदी फिल्मों के सीक्रेट सर्विस एजेंट्स अपने 'टारगेट' पर नज़र बनाये रखने की गरज से, आजकल सड़कों पर गाना गाते हुए दिखाई नहीं देते. रामानंद सागर की 'आँखें' याद हैं ना? हालाँकि भिखारियों का गेटअप अभी भी उनका पसंदीदा है. नीरज पांडे ने पिछले कुछ सालों में राष्ट्रीय सुरक्षा और देशप्रेम के सवालों से सीधे-सीधे तौर पर जुड़ी कहानियों के ज़रिये इतना तो किया ही है. इंटेलिजेंस के लोग अब लाल, पीले, हरे बल्बों से सजी दीवारों और पैनलों के आगे बैठे, रेडियो पर जोर जोर से 'ओवर एंड आउट' नहीं बोलते, बल्कि हफ़्तों तक बिना किसी हलचल एक कमरे में कैद रहते हैं, भीड़ भरी गलियों में, मौके की तलाश में 'टारगेट' के पीछे-पीछे चुपचाप चलते रहते हैं और काम निपटा कर वापस भीड़ में खो जाते हैं. 'अय्यारी' करीब करीब इतनी ही लम्बी, उबाऊ और नीरस फिल्म है. 

मोटी दलाली की लालच में, सेना का रिटायर्ड अधिकारी गुरिंदर सिंह (कुमुद मिश्रा) चौगुनी कीमतों पर सेना को अपने खास लोगों से ही हथियार खरीदने की पेशकश करता है. मना करने पर सेना के एक गुप्त गैरकानूनी संगठन का मीडिया में भंडाफोड़ करने की उसकी धमकी के बाद अब सेना की साख दांव पर है. खुफिया जानकारी मुहैया कराने वाला गद्दार उसी संगठन से है, मेजर जय बक्शी (सिद्दार्थ मल्होत्रा). और उसे रोकने की जिम्मेदारी है, संगठन के सबसे काबिल अफसर और मुखिया कर्नल अभय सिंह (मनोज बाजपेयी) पर. गुरु-शिष्य आमने-सामने हैं. दोनों की अपनी जायज़ वजहें हैं. दोनों के अपने-अपने दांव-पेंच. हालाँकि कहानी में ना ही जय की बग़ावत का कोई ठोस इरादा पता चलता है, ना ही अभय की कथातथित 'अय्यारी' का कोई बहुत दिलचस्प नमूना देखने को मिलता है.      

सेना का मनोबल न घटे, अक्सर इस वजह से सेना में भ्रष्टाचार की सुगबुगाहट को सिरे से नकारा जाता रहा है. नीरज पांडे जब 'अय्यारी' में सैनिक हथियारों की खरीद-फरोख्त में भ्रष्टाचार के मामले के इर्द-गिर्द अपनी कहानी बुनना शुरू करते हैं, तो लगता है कि उनके जरिये परदे पर कुछ हिम्मत दिखेगी, पर जल्द ही वो भी सेना के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने की कवायद में कहानी के साथ जबरदस्त छेड़छाड़ करने लगते हैं. नतीजा, कहानी के सिरे इतने कटे-फटे और बेमतलब हो जाते हैं कि कहने को कोई मुद्दा बचता ही नहीं. तभी तो जहां सेना पर मीडिया द्वारा उनके गुप्त संगठन का खुलासा कर दिये जाने की तलवार लटक रही होती है, 'आदर्श हाउसिंग सोसाइटी' से मिलते-जुलते एक घोटाले की खबर के साथ उसे बदल देने में ही कर्नल अभय सिंह अपनी जीत मनवा लेता है. जय का रुख और रवैया भ्रष्टाचार को लेकर बहुत ही बचकाना लगता है, खास तौर पर तब जब वो भी उन्ही लोगों के साथ सौदेबाजी में जुट जाता है. यकीन मानिए, इसमें उसकी कोई सोची-समझी रणनीति भी नहीं है, जो फिल्म के आखिर में जाकर आपको चौंका दे. 

नीरज को एक बात की दाद तो मिलनी ही चाहिए. अपने लम्बे-लम्बे दृश्यों में जिस ठहराव के साथ वो आपको लिप्त कर लेते हैं, परदे पर सस्पेंस थ्रिलर का पूरा पूरा माहौल बन जाता है. दिक्कत तब पेश आती है, जब इन लम्बे-लम्बे दृश्यों का अंत और उद्देश्य फिल्म की कहानी में कोई बहुत बड़ा योगदान नहीं दे पाता. 'अय्यारी' कुछ बेहद जाने-पहचाने चेहरों (कुमुद मिश्रा, निवेदिता भट्टाचार्या, जूही बब्बर, राजेश तैलंग और आदिल हुसैन) और गिनती के बेहतरीन अभिनय (मनोज बाजपेयी, नसीर साब) से ही थोड़ी बहुत उम्मीद बचा पाती है. मनोज जहाँ अपनी ईमानदारी से पूरी फिल्म में छाए रखते हैं, नसीर साब मेहमान भूमिका में भी कमाल कर जाते हैं. सिद्धार्थ अभिनय में बहुत संयमित हैं, पर नीरज उन्हें फिल्म में 'स्टाइल' का पुट लाने के लिए ही ज्यादा इस्तेमाल करते हैं. रकूल प्रीत बस फिल्म में होने के लिए ही हैं. 

आखिर में; 'अय्यारी' अपने विषय-वस्तु की वजह से रोचक तो लगती है, मगर नीरज पांडे की दूसरी फिल्मों (स्पेशल 26, बेबी) की तरह तनिक भी रोमांचक नहीं है. अभिनय में मनोज बाजपेयी की आसानी देखनी हो, तो भी उनकी अच्छी फिल्मों की लिस्ट बहुत बड़ी है. यहाँ तो मनोज सिर्फ आपको उकताहट से बचाने के लिए मौजूद रहते हैं. कहानी में धार न होने के बावजूद, अगर 'जय हिन्द', 'गद्दार' और 'देश', जैसे शब्द कहीं न कहीं आपमें बेमतलब की ऊर्जा भर देते हैं, तभी देखने जाईये. [2/5] 

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