Friday, 6 April 2018

ब्लैकमेल: ब्लैक कॉमेडी या ब्लैक ट्रेजेडी! [1.5/5]


“एक पति अपनी बीवी को सरप्राइज करने के लिए जल्दी घर पहुँच जाता है. बेडरूम में क्या देखता है कि उसकी पत्नी किसी और आदमी के साथ बिस्तर पे सो रही है. उसके बाद पता है, पति क्या करता है?”.... “पति उस आदमी को ब्लैकमेल करने लगता है”. अभिनय देव की ‘ब्लैकमेल’ में फिल्म का ये मजेदार प्लॉट गिन के तीन बार अलग-अलग मौकों पर सुनाया जाता है. फिल्म की शुरुआत में पहली बार जब नायक खुद इसे ज़ोक के तौर पर सुनाता है, उसके दोस्त को जानने में तनिक देर नहीं लगती कि वो अपनी ही बात कर रहा है. ‘ट्रेजेडी में कॉमेडी’ की एक अच्छी पहल, एक अच्छी उम्मीद यहाँ तक तो साफ दिखाई दे रही है, पर अंत तक आते-आते फिल्म का यही प्लॉट जब पूरी संजीदगी के साथ बयान के तौर पर पुलिस के सामने रखा जाता है, वर्दी वाला साहब बिफर पड़ता है, “क्या बी-ग्रेड फिल्म की कहानी सुना रहा है?” एक मुस्तैद दर्शक होने के नाते, आपका भी रुख और रवैय्या अब फिल्म को लेकर ऐसा ही कुछ बनने लगा है.

देव (इरफ़ान खान) की शादीशुदा जिंदगी परफेक्ट नहीं है. ऑफिस में देर रात तक रुक कर वक़्त काटता है, और फिर घर जाने से पहले किसी भी डेस्क से किसी भी लड़की की फोटो लेकर चुपचाप ऑफिस के बाथरूम में घुस जाता है. एक रात सरप्राइज देने के चक्कर में जब उसे पता चलता है कि उसकी बीवी रीना (कीर्ति कुल्हारी) का किसी अमीर आदमी रंजीत (अरुणोदय सिंह) से चक्कर चल रहा है, वो अपनी मुश्किलें मिटाने के लिए उसे ब्लैकमेल करने का प्लान बनाता है. आसान लगने वाला ये प्लान तब और पेचीदा हो जाता है, जब सब अपनी-अपनी जान बचाने और पैसों के लिए एक-दूसरे को ही ब्लैकमेल करने लगते हैं. पति प्रेमी को, प्रेमी पत्नी को, पत्नी पति को, पति के साथ काम करने वाली एक राजदार पति को, यहाँ तक कि एक डिटेक्टिव भी.        

ब्लैक कॉमेडी बता कर खुद को पेश करने वाली ‘ब्लैकमेल’ एक उबाऊ चक्करघिन्नी से कम नहीं लगती. कुछ ऐसे जैसे आपकी कार इंडिया गेट के गोल-गोल चक्कर काट रही है, और बाहर निकलने वाला सही ‘कट’ आपको मिल ही नहीं रहा. वरना जिस फिल्म में इरफ़ान खान जैसा समझदार, काबिल और खूबसूरत अदाकार फिल्म की हर कमी को अपने कंधे पर उठा कर दौड़ पूरी करने का माद्दा रखता हो, वहां अज़ब और अजीब किरदारों और कहानी में ढेर सारे बेवजह के घुमावदार मोड़ों की जरूरत ही क्या बचती है? ‘ब्लैकमेल’ एक चालाक फिल्म होने के बजाय, तिकड़मी होना ज्यादा पसंद करती है. इसीलिए टॉयलेट पेपर बनाने वाली कंपनी के मालिक के किरदार में ओमी वैद्य अपने वाहियात और उजड्ड प्रयोगों से आपको बोर करने के लिए बार-बार फिल्म की अच्छी-भली कहानी में सेंध लगाने आ जाते हैं. देव के दोस्त के किरदार में प्रद्युमन सिंह मल्ल तो इतनी झुंझलाहट पैदा करते हैं कि एक वक़्त के बाद उन्हें देखने तक का मन नहीं करता. यकीन ही नहीं होता, ‘तेरे बिन लादेन’ में इसी कलाकार ने कभी हँसते-हँसते लोटपोट भी किया था. शराब में डूबी दिव्या दत्ता और प्राइवेट डिटेक्टिव की भूमिका में गजराज राव थोड़े ठीक लगते हैं.

‘ब्लैकमेल’ अभिनय देव की अपनी ही फिल्म ‘डेल्ही बेली’ जैसा दिखने, लगने और बनने की कोशिश भर में ही दम तोड़ देती है. ब्लैक कॉमेडी के नाम पर एडल्ट लगना या एडल्ट लगने को ही ब्लैक कॉमेडी बना कर पेश करने में ‘ब्लैकमेल’ उलझी रहती है. देव अपनी पहचान छुपाने के लिए जब एक पेपर बैग का सहारा लेता है, ब्रांड एक लड़कियों के अंडरगारमेंट का है. नाकारा रंजीत जब भी अपने अमीर ससुर के सामने हाथ बांधे खड़ा होता है, डाइनिंग टेबल पर बैठी उसकी सास कभी संतरे छिल रही होती है, तो कभी अंडे. इशारा रंजीत के (?) की तरफ है. हालाँकि कुछेक दृश्य इनसे अलग और बेहतर भी हैं, जैसे फ्रिज में रखी लाश के सामने बैठ कर फ़ोन पर उसकी सलामती के बारे में बात करना, पर गिनती में बेहद कम.

आखिर में, अभिनय देव ‘ब्लैकमेल’ के जरिये एक ऐसी सुस्त और थकाऊ फिल्म सामने रखते हैं, जहां अतरंगी किरदारों को बेवजह फिल्म की सीधी-सपाट कहानी में शामिल किया जाता है, और फिर बड़ी सहूलियत से फिल्म से गंदगी की तरह उन्हें साफ़ करने के लिए एक के बाद एक खून-खराबे के जरिये हटा दिया जाता है. बेहतर होता, अगर फिल्म अपने मुख्य कलाकार इरफ़ान खान की अभिनय क्षमता पर ज्यादा भरोसा दिखा पाती! सैफ अली खान की भूमिका वाली ‘कालाकांडी’ अपनी कहानी में इससे कहीं बेहतर फिल्म कही जा सकती है, जबकि उसे भी यादगार फिल्म मान लेने की भूल कतई नहीं करनी चाहिए. [1.5/5]  

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