मुंबई के रेडलाइट इलाके की एक इमारत है.
छोटे-छोटे कमरों से भरे गलियारे में जिस्मों के मोल-भाव चल रहे हैं. एक माँ अपने ‘क्लाइंट’ के साथ कमरे में दाखिल होती है, एक छोटी बच्ची कमरे से निकल कर चुपचाप दीवार से लग कर खड़ी हो जाती है. उसे
कुछ समझाने, बताने या कहने की अब जरूरत भी नहीं पड़ती. ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ को आये 10 साल बीत चुके हैं, और ‘सलाम बॉम्बे’ तो 30 साल
पहले आई थी. मुंबई की इन बदनाम, तंग गलियों में तंगहाल
जिंदगियों के हालात, हो सकता है अब भी बहुत ज्यादा न बदले
हों, मगर जब माज़िद मजीदी जैसे वाहिद और काबिल फ़िल्मकार आज भी
परदे पर अपनी कहानी कहने के लिए, उन्हीं मशहूर फिल्मों के उन्हीं
चिर-परिचित दृश्यों की परिपाटी का सहारा लेते हैं, सवालों से
कहीं ज्यादा बढ़कर मायूसी होती है. क्या मुंबई शहर की, शहर के
इस सबसे निचले-गंदले हिस्से की पूरी समझ मजीदी साब को फिल्मों से ही उधार में मिली
है? या फिर उनकी यह कोशिश महज़ किसी ख़ास ‘बकेट-लिस्ट’ का एक पड़ाव भर है?
ईरानी फ़िल्मकार माज़िद मजीदी पारिवारिक
रिश्तों में आत्मीयता खोजने के लिए सीधी-सरल और मासूमियत भरी कहानियों के लिए जाने
जाते हैं. लापरवाही से छोटी बहन ज़ाहरा के जूते गंवाने के बाद, नए जूतों के लिए नयी-नयी तिकड़में लगाता अली तो याद ही होगा (चिल्ड्रेन ऑफ़
हेवन)? ‘बियॉन्ड द क्लाउड्स’ भी ऐसे ही एक भाई-बहन की कहानी है. हालांकि मासूमियत तो छोडिये, उनके बीच के ज़ज्बात भी बहुत रह-रह कर, बुझे-बुझे ही
आप तक पहुँचते हैं. आमिर (ईशान खट्टर) ड्रग्स के धंधे में है. तारा (मालविका
मोहनन) धोबी घाट पर कपड़े इस्तरी करती है. एक रोज, तारा पर
गन्दी नज़र रखने वाले अक्षी (गौतम घोष) पर तारा हमला कर देती है, और अब वो जेल में है, तब तक जब तक अक्षी ठीक होकर
बयान देने की हालत में न आ जाए. एक बड़ा हाथ मारकर लाइफ ‘राकेट’ करने की बेचैनी के बीच, अब आमिर अक्षी और उसके
परिवार की देखरेख में फंसा है.
मुंबई में फ्लेमिंगो देखा है कभी? हर साल आते हैं कच्छ से उड़कर. ‘बियॉन्ड द क्लाउड्स’ भी ईरान से उड़कर आया लगता है. हालाँकि मुंबई का लगने की जद्द-ओ-जहद में
बनावटीपन कुछ ज्यादा ही हावी हो जाता है. ईशान
खट्टर का सांवलापन पहले फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक पहुँचते-पहुँचते किसी फेयरनेस
क्रीम के शेडकार्ड जैसे नतीजे दिखाने लगता है. फिल्म में हर बदनसीब औरत किसी न
किसी ‘बेवड़े’ से परेशान होकर जिंदगी के
इस तकलीफ़देह मुकाम तक पहुंची है. माँ-बाप का न होना बड़ी सहूलियत से ‘कार-एक्सीडेंट’ के मत्थे चढ़ जाता है. और फिल्म में सबसे
गैर-जिम्मेदाराना भागेदारी तो विशाल भारद्वाज के हिस्से आती है, जिन्होंने फिल्म के हिंदी संवाद लिखे हैं. उनकी किसी एक ट्रांसलेटर से
ज्यादा की भूमिका कभी नज़र ही नहीं आती. विशाल की कलम से सिर्फ रूखे-सूखे शब्द ही
निकलते हैं, उनमें किसी किस्म का कोई भाव, कोई ख़ास लहजा, किसी तरह का कोई जायका दिखाई ही नहीं
देता. रहमान साब के बाद, अगर इस फिल्म में औसत काम के लिए किसी
के पैसे कटने चाहिए तो विशाल भारद्वाज के.
मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है.
मजीदी साब अपने सिनेमा की झलक जरूर दिखाते हैं, कई बार तो
भड़ास के तौर पर भी. इसी कड़ी में, परछाईयों के साथ उनके
प्रयोग एक-दो बार नहीं, फिल्म में बार-बार सामने आते हैं.
आमिर की अक्षी के परिवार (एक बूढी माँ और दो नाबालिग़ बेटियों) के साथ के रिश्तों
में वो ईमानदारी, वो मासूमियत, वो
सहजता, वो गर्माहट पूरी कामयाबी से आपको छू जाती है, जिसके लिए मजीदी साब को आप हमेशा से चाहते आये हैं. मगर पूरी फिल्म में
ऐसे मौके गिनती के हैं, बेहद कम हैं. ईशान और मालविका दोनों अपने-अपने
अभिनय में घोर संभावनायें और मज़बूत करते हैं.
‘बियॉन्ड द क्लाउड्स’ के आखिरी पलों में उम्रकैद झेल रही एक माँ का बच्चा चाँद देखने की जिद कर
रहा है. जेल में ही पैदा और पला-बढ़ा होने की वजह से उसने कभी चाँद देखा ही नहीं
है. माज़िद मजीदी का सिनेमा बस इक इसी पल में सांस लेता सुनाई देता है, बस एक इतने में ही पूरी फिल्म से ज्यादा मुकम्मल लगता है. बाकी के वक़्त
तो आप बस एक हिंदी फिल्म देख रहे थे. मुंबई में बनी, मुंबई
पे बनी, एक शुद्ध हिंदी (विशाल भारद्वाज की बदौलत) की फिल्म!
[2.5/5]
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