Friday 4 May 2018

ओमार्ता (A): राजकुमार राव के अभिनय में एक और तमगा! [3.5/5]


सिनेमाई खलनायकों में अक्सर हमें मानवीय संवेदनाएं ढूँढने की आदत है. उनके अतीत में सेंध लगाकर जानने की कोशिश कि आखिर वो जैसे हैं, वैसे क्यूँ हैं? समाज या फिर सिस्टम से चोट खाए, बदले की आग में सब कुछ जला देने की सनक लिए ऐसे ढेर सारे एंटी-हीरोज को हमने सालों तक सर बिठाया है. और फिर आते हैं कुछ वो क्रूर, निर्दयी लेकिन रंग-बिरंगे, अजीब-ओ-गरीब खलनायक (मोगैम्बो, सर जूडा, शाकाल) जिनका पागलपन एकदम समझ से परे है. दुनिया पर कब्ज़ा करने की सनक में अंधे, अलग ही किस्म के हंसोड़ विलेन. हंसल मेहता की ओमार्ता का नायक भी खलनायक ही है, असल जिंदगी का है, पर इन दोनों किस्मों के खलनायकों से बिलकुल अलग. उसका अड्डा किसी काली पहाड़ी के पीछे की गुफा नहीं है. उसका पहनावा किसी सर्कस के रिंगमास्टर की याद नहीं दिलाता. किसी ने उसके माँ-बाप की हत्या बचपन में उसकी आँखों के सामने नहीं की थी. उसकी जमीन भी किसी साहूकार के हाथों बंधक नहीं पड़ी. पर फिर भी उसकी सनक, उसका पागलपन, उसका शैतानी दिमाग आपकी हड्डियों तक को कंपा देने में कहीं से भी कम नहीं पड़ता.

पुरानी दिल्ली के एक छोटे से मकान में 4 विदेशियों को बंधक रखा गया है. पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश आतंकवादी अहमद उमर सईद शेख़ (राजकुमार राव) का शायद पहला ही मिशन है ये. उमर पकड़ा जाता है. बोस्निया में उसके अपने भाइयों पर हो रहे ज़ुल्म के चलते उसने अपने लिए ज़ेहाद का रास्ता चुना है. उसे छुडाने के लिए कंधहार में इंडियन एयरलाइन्स का जहाज़ तक अगवा कर लिया गया है. ये उमर ही है, जिसके तार आगे चलकर अमेरिका में 9/11 अटैक और वॉल स्ट्रीट जर्नल के पत्रकार डेनियल पर्ल की निर्मम हत्या से जुड़े. मुंबई में 26/11 हमले के वक़्त, इसी शैतानी दिमाग ने भारत और पाकिस्तान को अलग-अलग फ़ोन करके युद्ध की स्थिति तक ला खड़ा किया था. धार्मिक उन्माद किस तरह पढ़े-लिखे जहीन दिमाग नौजवानों को हैवानियत की हद तक ला फेंकता है, ओमार्ता इसका बेहद करीबी और एकदम सटीक तस्वीर पेश करती है. वो भी असलियत के एकदम आसपास रहते हुए.

किसी खोजी रिपोर्ट या काबिल डाक्यूमेंट्री ड्रामा की तर्ज़ पर बनी ओमार्ता एक डार्क क्राइम थ्रिलर है, जहां निर्देशक हंसल मेहता आपके रोंगटे खड़े करने के लिए अख़बारों की असल सुर्ख़ियों, समाचारों के फुटेज और रूह कंपा देने वाली भयावह तस्वीरों का बेझिझक और बेख़ौफ़ इस्तेमाल करते हैं. ये तब और भी जरूरी लगने लगता है, जब हंसल उमर सईद शेख़ के आतंकवादी बनने की तरफ बढ़ने की आग को किसी और इमोशनल ईंधन से भड़काने की कोई होशियारी नहीं दिखाते, और तब भी जब उसके वहशियाना शख्सीयत को उधेड़ कर सामने रख देना चाहते हैं. अनुज राकेश धवन की बाकमाल सिनेमेटोग्राफी के साथ, हंसल फिल्म के दृश्यों को पूरी तरह आप पर ज़ाहिर होने देने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाते. यहाँ तक कि फिल्म के सबसे नाटकीय दृश्य (डेनियल पर्ल की हत्या) में भी आपको सब कुछ होते हुए साफ़-साफ़ नहीं दिखता, कैमरा उमर के चेहरे तक ही सीमित रहता है, पर घृणा, डर और दर्द से आपका दिल बैठा देने में नाकाम नहीं होता. इससे भयावह कुछ हिंदी सिनेमा में कम ही देखा है मैंने.

ओमार्ता राजकुमार राव के कद्दावर अभिनय में एक और तमगा है. जिस ख़ामोशी और ठहराव से वो उमर के किरदार में दाखिल होते हैं, और फिर वक़्त-बेवक्त उसके गुस्से, उसकी सनक और उसकी नफरत को बराबर मात्रा में नाप-जोख के परदे पर निकालते हैं, देखने लायक है. चेहरे पर कोई पछतावा नहीं, दिल में कोई मलाल नहीं, और वो हलकी सी शैतानी मुस्कराहट (रावण का अट्टहास नहीं); राजकुमार राव का यह किरदार हालिया खलनायकों की लिस्ट में बड़ी आसानी से, बहुत वक़्त तक याद रखा जाने लायक है. अगर याद हो, शाहिद में हंसल ने जेल के दृश्य में शाहिद आज़मी (राजकुमार राव) की मुलाक़ात कुछेक दृश्यों में उमर सईद शेख़ (तब, प्रबल पंजाबी) से कराई थी. अपने भाइयों पर हो रहे जुल्म से लड़ने के लिए दोनों अलग-अलग रास्ते चुनते हैं. इसे महज़ एक रोचक तत्थ्य मानने से हटकर देखें, तो हंसल इस तरह इस्लामिक आतंकवाद और धार्मिक भेदभाव के सन्दर्भ में अपना घेरा पूरा कर लेते हैं.  
             
हम अल्लाह के बन्दे हैं’, अल्लाह हमारे साथ है’, जैसे घिसे-पिटे संवादों से भरे दो-चार मौलानाओं की दकियानूसी और फ़िल्मी बर्गालाहट भरे दृश्यों को नज़रंदाज़ कर दें, तो किसी आतंकवादी की एकलौती बायोपिक होने के साथ-साथ ओमार्ता एक जरूरी और बेहद मुश्किल फिल्म है, देखने के लिए भी और बनाने के तौर पर भी. फिल्म किसी तरह का कोई सन्देश देने की या फिर एक मुकम्मल अंत देने की जिद से बचती है, इसलिए और भी सच्ची लगती है. [3.5/5]

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