फोटोग्राफर बनने की चाह छोड़कर, अविनाश (दुलकर सलमान) एक आईटी कंपनी की ऊबाऊ नौकरी में जिंदगी गुज़ार रहा
है. तान्या (मिथिला पालकर) कॉलेज में है, बाग़ी मिजाज़ की है. उम्र
से ज्यादा, जिंदगी को लेकर दोनों के रवैये में ख़ासा फर्क है.
फिल्म के एक हिस्से में दोनों फोटोग्राफी पर बहस कर रहे हैं. तान्या के लिए अविनाश
‘ओल्ड-स्कूल’ है,
खूबसूरत पलों को कैद करने के लिए फ्रेमिंग और लाइटिंग जैसी चीजों पर ज्ञान दे रहा
है, जबकि इंस्टाग्राम के जादुई फिल्टर्स के साथ वो किसी भी
फोटो को खूबसूरत बनाने का हुनर बखूबी जानती है. ‘अच्छा ही तो
है, सब फोटोग्राफर बन जायेंगे.” आकर्ष खुराना की ‘कारवां’ भी उन्हीं इंस्टाग्राम पोस्ट्स की तरह बेहद खूबसूरत
है, पर बनी-बनाई गयी है. कुदरती तौर पर पलों को कैद करने की
कवायद या फिर ठहर कर, रुक कर, थम कर फ्रेम
बनाने का सब्र आखिर कौन करे, जब पहले से तैयार सांचे इस सारी
मेहनत पर वक़्त जाया करने से आपको बचा सकते हैं. यही वजह है कि ‘कारवाँ’ पूरी तरह खूबसूरत होते हुए भी, आसानी से अच्छा लगने के एहसास के बावजूद ना ही आपको छूती है, ना ही याद रह पाती है.
रोड-ट्रिप पर बनने वाली फिल्मों का एक
अपना खाका है, एक अपना बहाव है. ‘कारवाँ’ वो सब रस्ते, वो सब मोड़, वो
सब उतार-चढ़ाव पूरी शिद्दत से, बड़ी तैय्यारी के साथ, बिना किसी भूल-चूक पार करती है. एक बुरी खबर और एक छोटी सी गड़बड़ी से शुरू
हुआ सफ़र अपनी मंजिल तक पहुँचने से पहले सब कुछ ठीक कर देता है, साथ ही धारावाहिक की कहानियों की तरह हर पड़ाव पर मनोरंजन का पूरा-पूरा
ध्यान रखता है. तीर्थ यात्रा पर निकले अविनाश के पिता की एक्सीडेंट में मृत्यु हो
गयी है, और अब अविनाश के पास जो ‘डेड
बॉडी’ आई है, वो किसी और की है. अपने
पिता के मृत शरीर को लेने अब उसे बंगलौर से कोच्ची जाना है. दोस्त शौकत (इरफ़ान
खान) अपनी वैन के साथ मदद को तैयार खड़ा है. कहने की बात नहीं कि रास्ते इतने सीधे
नहीं है, कभी किसी मोड़ से किसी और को साथ लेना है, तो कभी किसी से अचानक मिल जाने का मौका. साथ ही,
रोमांच और रोमांस के लिए करीने से बनायी (घुसाई) गयी जगह...और इन सब के बीच, पर्वतों, पहाड़ों, झीलों, झरनों, नदियों और सड़क किनारे पीछे की ओर भागते
पेड़ों के दृश्यों के साथ मखमली आवाज में, टुकड़ों में
आता-जाता एक गीत.
‘कारवां’ ख़ूबसूरती
और मनोरंजन की बड़ी सधी सी और सीधी सी मिलावट है. ख़ूबसूरती के लिए मलयालम फिल्मों
के बेहतरीन अदाकार दुलकर सलमान और वेब-वर्ल्ड का जाना-पहचाना नाम मिथिला पालकर; और मनोरंजन के लिए एकलौते ही काफी, इरफ़ान. फिल्म ज्यादातर
वक़्त डार्क-कॉमेडी से गुदगुदाने का प्रयास करती है, पर
कामयाबी उसे इरफ़ान की अपनी चिर-परिचित शैली से मिलने वाले मजेदार पलों में ही नसीब
होती है. दृश्यों के बीच में, इरफ़ान का हवा की तरह घुस आना
और फिर हलके से गुदगुदा के चले जाना कभी भी गलत साबित नहीं होता. हालाँकि इसके लिए
फिल्म की कहानी उन्हें कोई ख़ास वजह नहीं देती. फिल्म उनके लिए एक पिकनिक जैसी लगती
है, जहां मौजूद हर किरदार के साथ वो हंसी-ठिठोली भी कर रहे
हों तो आपको मज़ा ही आता है. वरना 2018 के साल में, लड़कियों
के कपड़ों की लम्बाई पर बिफरने वाले किरदार के साथ आप क्यूँ ही हँसना-खिलखिलाना
चाहेंगे?
फिल्म दो ख़ास मौकों पर थोड़ी असहज होती
है, और शायद उन्हीं पलों में ठहरना भी सीखती है. अविनाश अपने
कॉलेज की ‘ख़ास’ दोस्त रूमी (कृति
खरबंदा) से सालों बाद मिल रहा है, उसके घर में, उसके पति के साथ. अविनाश के जाते समय, हाथ हिलाती रूमी
से आके उसका पति लिपट जाता है. पूछता है, ‘’वो ठीक तो है?’’. उसे सब कुछ पहले से पता है. दूसरी
बार ऐसा मौका आता है, जब तान्या की माँ की भूमिका में अमला
अक्किनेनी परदे पर सामने आती हैं. हालाँकि उनका किरदार फिल्म में कुछ बहुत अलग सा इजाफ़ा
नहीं करता, पर उनका होना ही जैसे फिल्म को थमने की याद दिला
देता है. यही वो पल हैं, जब दुलकर को भी उनकी काबिलियत के
बराबर का दृश्य अभिनीत करने को मिलता है.
आखिर में, ‘कारवां’ को नापसंद करने की कोई ख़ास वजह नहीं है. बहुत
मुमकिन है कि आप इस सफ़र को बहुत देर तक याद भले ही न रखें,
इस सफ़र में होना आपको कतई परेशान नहीं करेगा. फिल्म में शौक़त की वैन पर एक मशहूर
शे’र लिखा होता है, “मैं अकेला ही चला
था, जानिब-ए-मंजिल मगर...लोग साथ आते गये, कारवां बनता गया’. फिल्म देखने के बाद स्वर्गीय
नीरज जी का एक गीत मेरे ज़ेहन में भी उभरा, “कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे’, हालाँकि ये गुबार खूबसूरत बहुत
था! [2.5/5]
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