Friday, 31 August 2018

स्त्री: हॉरर, कॉमेडी और फेमिनिज्म! [3.5/5]


बॉलीवुड में मसाला फिल्मों के स्वघोषित जानकार भलीभांति जानते हैं कि हॉरर का मतलब है डराना, और कॉमेडी का मतलब हँसाना. न इससे कम कुछ, न इससे छटांक भर ज्यादा कुछ. अब बड़ी दिक्कत ये है कि ऐसा करने के लिए उनके पास जो फ़ॉर्मूला है, उसके हिसाब से डराने के लिये दो-चार जाने-पहचाने पैंतरे, एक भूतिया हवेली, एक प्यासी चुड़ैल (खून, हवस या कभी कभी दोनों की) और हंसाने के लिए दो अदद हंसोड़ किरदार या किलो भर चुटकुले ही बहुत हैं. इनमें अगर सेक्स का तड़का लग जाए, तो फिर कहने ही क्या! अमर कौशिक की स्त्री में भी यही सब है, और एकदम नपा-तुला बराबर मात्रा में. मगर यहाँ कुछ और भी है, जो स्त्री को आम हॉरर या कॉमेडी फिल्मों से अलग करता है और मनोरंजन की हर शर्त पूरी करते हुए भी, अपनी समझदारी को कभी ताक पर नहीं रखता. स्त्री एक ऐसी फिल्म है, जो आपको डराती भी है, हंसाती भी है, और ये सब करते हुए आपसे बात भी बहुत करती है. कुछ बेहद ख़ास बातें, फेमिनिज्म की बातें, जिन्हें सुनना और सुन कर समझना आपकी अपनी समझ के दायरे को परिभाषित करती हैं.  

हालाँकि फिल्म का कथानक मध्य प्रदेश का चंदेरी शहर है, पर जिस तरह का सामाजिक ताना-बाना परदे पर दिखता है, इसे आप भारत का कोई भी गाँव, कोई भी शहर या मानने को पूरे का पूरा देश भी मान सकते हैं. ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. चंदेरी में हर साल, चार दिन पुरुषों पर बड़े भारी पड़ते हैं. इन चार दिनों में हर रात एक स्त्री बाहर निकलती है, और मर्दों को अपना निशाना बनाकर ले जाती. छोड़ जाती है तो बस उनके कपड़े. बचने का एक ही रास्ता है, घरों पर लिख कर रखिये, “ओ स्त्री! कल आना’’. पुस्तक भण्डार के मालिक रूद्र भईया (पंकज त्रिपाठी) ने पूरी रिसर्च की है इस स्त्री पर. “ये स्त्री नए भारत की स्त्री है. पढ़ी-लिखी है. मर्दों की तरह जबरदस्ती नहीं करती. तीन बार आवाज़ देगी, पलट कर देखोगे तो समझ लेगी कि यस है, और यस मीन्स यस.” दोस्तों (अपारशक्ति खुराना और अभिषेक बैनर्जी) को लगता है, उनका बांका जवान दोस्त (राजकुमार राव) भी आजकल ऐसी किसी भूतिया स्त्री (श्रद्धा कपूर) के चंगुल में फंस रहा है, पर उसपे तो प्यार का भूत चढ़ा है. समझाए कौन?

राज और डीके (शोर इन द सिटी, गो गोवा गॉन) अपनी कहानी में बड़े संतुलित तरीके से हॉरर और कॉमेडी का तालमेल बैठाते हैं. फिल्म का पहला हिस्सा हालाँकि चंदेरी जैसे छोटे शहरों की आबो-हवा में घुलने और वहाँ के किरदारों से जुड़ने में ज्यादा खर्च होता है, पर अपने दूसरे हिस्से में सुमीत अरोरा के दिलचस्प और व्यंग्यात्मक संवादों के जरिये फिल्म अपने उस मुकाम तक पहुँचने में कामयाब होती है, जहां उसके होने की वजह सिर्फ मनोरंजन नहीं रह जाती. पहले हिस्से में फ़िज़ूल  के ताबड़तोड़ गानों से बचा जा सकता था. इस हिस्से में फिल्म टुकड़ों में ही आपको याद रह पाती है, और वो भी ज्यादातर उन दृश्यों में अभिनेताओं की क़ाबलियत की वजह से. एक दृश्य में बाप (अतुल श्रीवास्तव) बेटे को जवानी में गलत संगत में न पड़ने की और स्वयंसेवी बनने की सलाह दे रहा है. छोटे शहरों में पारिवारिक सेक्स-एजुकेशन कितना हास्यास्पद हो सकता है, उसकी एक झलक तो इस दृश्य में मिल ही जाती है.

फिल्म का दूसरा हिस्सा पूरी तरह पुरुषवादी विचारधारा का मजाकिये लहजे में मखौल उड़ाता है. स्त्री का प्रकोप इस हद तक है कि अब शहर की औरतें खुलेआम रातों को घर से बाहर जा रही हैं, और पति दरवाजा बंद करते हुए कहता है, “जल्दी आ जाना, रात को अकेले डर लगता है”. स्त्री से बचने का नुस्खा कामसूत्र की किताब के बीचोबीच छिपा कर रखा हुआ है. वासना से आगे बढ़ोगे, तब कहीं जाके मिलेगा मुक्ति का मार्ग. मर्दों को बिना कपड़ों के ले जाना, उनको उनकी छोटी सोच से भी नंगा कर देना समझ लेना चाहिए, जो एक वेश्या को उसकी पसंद से बड़ी बेरहमी से अलग कर देती हो. प्यास यहाँ सिर्फ बदले की या खून की नहीं है, तलब और जिद है प्यार और इज्ज़त मिलने की. रूद्र भईया सुनते ही बिफर पड़ते हैं, “बड़े जाहिल लोग हैं आप!”. आखिरकार ये वो समाज है, जहाँ नौजवानों में लड़कियों से फ्रेंडशिप का मतलब सीधा सीधा सेक्स होता है, और कुछ नहीं.

स्त्री अगर शोर-शराबे वाले बैकग्राउंड म्यूजिक और संवादों में धागे भर की शालीनता बरत पाती तो बेहद अच्छी हो सकती थी. गनीमत है कि राजकुमार राव और पंकज त्रिपाठी का होना सब कुछ जैसे लीपपोत कर चिकना कर देता है. अभिषेक और अपारशक्ति के साथ राव की तिकड़ी वाले दृश्य गुदगुदाते हैं, भले लगते हैं जैसे अपन ही चाय की टपरी पे शाम बिता रहे हों. अपारशक्ति और अभिषेक दोनों के हिस्से कुछ बेहद मनोरंजक पल आये हैं. पंकज त्रिपाठी दृश्यों में अपनी जगह आप खोज लेते हैं, बना लेते हैं. उनकी बॉडी लैंग्वेज ही उनके किरदार की जान बन जाती है, और कॉमेडी के इस दौर में ये खूबी उनसे बेहतर संजय मिश्रा को ही आती है. श्रद्धा सटीक हैं, और शायद अपनी अदाकारी में पहली बार इतनी कारगर भी.

आखिर में; स्त्री हॉरर कॉमेडी के तौर पर एक अच्छी कोशिश है. हॉरर के नाम पर कॉमेडी और हॉरर के साथ सेक्स का घालमेल करके उलजलूल परोसने में बॉलीवुड ने कोई कमी नहीं छोड़ी है. “स्त्री इक नये, बेहतर रास्ते की तरफ बढ़ती है. चिल्लाते हुए भूत को डांट कर शांत कराने जैसे बचकाने और बेवकूफ़ी भरे हंसी-मज़ाक के साथ साथ, अगर समझदारी से कहानी में फेमिनिज्म जैसे जरूरी सामाजिक चेतना के विमर्श पर भी हंसने के मौके मिलने लग जाएं, तो कोई नीरस, बेशर्म और बेहया सेक्स का भौंडापन क्यूँ ले भला? ये न ले...[3.5/5]  

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