Thursday 18 October 2018

बधाई हो: ...पारिवारिक फिल्म हुई है. बेहद मनोरंजक! [3.5/5]


दो-चार-दस सालों से हिंदी सिनेमा ने मनोरंजन के लिए परदे पर कही जाने वाली कहानियों के चुनाव में ख़ासी समझदारी दिखाई है. मुद्दे ऐसे तलाशने शुरू किये हैं, जिनके ऊपर बात करना न तो बंद दरवाजों के बीच परिवार के साथ खुले तौर पर आसान और मुमकिन होने पायी थी, न ही सामाजिक दायरों के संकुचित दड़बों में ही इनकी कोई निश्चित जगह बनती दिख रही थी. स्पर्म डोनेशन (वीर्यदान) पर बात करती ‘विक्की डोनर हो, या इरेक्टाइल डिसफंक्शन (नपुंसकता) को मनोरंजन की चाशनी में तर करके पेश करती ‘शुभ मंगल सावधान; इन हिम्मती कहानियों ने परिवार और समाज के साथ संवाद स्थापित करने की एक गुंजाईश तो पैदा कर ही दी है. लेट प्रेगनेंसी के इर्द-गिर्द घूमती अमित रविंदरनाथ शर्मा की ‘बधाई हो इसी कड़ी में अगला नाम है. जवान बेटों की माँ पेट से है, और बाप नज़रें चुराये फिर रहा है, जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो. बेटों के लिए भी इसे समझना इतना आसान नहीं है. जहां ‘सेक्स’ को ही एक शब्द के तौर पर भी बिना असहज हुए बोल जाना गर्म लावे पर पैर धरकर आगे बढ़ने जैसा कठिन हो, उसे अपने माँ-बाप के साथ जोड़ कर देखना और सोचना भी कम साहसिक नहीं है. ‘बधाई हो इस मुश्किल को सहज करने और सहज करके मनोरंजक बनाने में पूरी तरह कामयाब रहती है.

अधेड़ उम्र के कौशिक साब (गजराज राव) रेलवे में टीटीई हैं. एक अदद माँ (सुरेखा सीकरी), एक अदद बीवी (नीना गुप्ता) और दो बेटों के साथ खुश थे, लेकिन फिर जाने क्यूँ उस रात उनका कवि-ह्रदय जाग गया, और अब वो घर में ‘छोटा मेहमान आने का समाचार डर-डर कर ज़ाहिर कर रहे हैं. बड़े बेटे (आयुष्मान खुराना) ने तो छोटे बेटे को ही चपेड़ लगा दी, “अलग कमरे की बड़ी जल्दी थी तुझे? कुछ दिन और मम्मी-पापा के बीच में नहीं सो सकता था?” उसकी भी दिक्कत कम नहीं है. अपनी प्रेमिका (सान्या मल्होत्रा) के साथ अन्तरंग होते वक़्त भी दिमाग वहीँ अटका रहता है, “यार, ये (सेक्स) भी कोई मम्मी-पापा के करने की चीज़ है?”. चेहरे की अपनी झुर्रियों जितनी शिकायतें लिए बैठी दादी अलग ही फट पड़ी है. कभी बहू को इस उम्र में लिपस्टिक लगाने के लिए कोस रही है, तो कभी बेटे को वक़्त न देने के लिए ताने सुना रही हैं.      

एक मुकम्मल पारिवारिक फिल्म होने के साथ-साथ, ‘बधाई हो दो सतहों पर अलग-अलग फिल्म के तौर पर भी देखी जा सकती है. माँ की प्रेगनेंसी को लेकर एक ओर जहां जवान बेटों की दुविधा, परेशानी और झुंझलाहट का मजाकिया माजरा है, दूसरी तरफ माँ-बाप बनने के बाद पति-पत्नी के बीच के धुंधले पड़ते रोमांटिक रिश्ते की अपनी कसमसाहट भी ख़ूब दिलकश है. रिश्तेदारों के सवालों से बचने के लिए बच्चे शादी में न जाने के बहाने ढूंढ रहे हैं. वहीँ पति के लिए सज-धज कर सीढ़ियाँ उतरती बीवी को निहारने का खोया सुख, परदे के लिए चिर-परिचित होते हुए भी एक बार फिर कामयाब है. बीच-बीच में बेटे (आयुष्मान-सान्या) का प्रेम-सम्बन्ध फिल्म में जरूरत भर की नाटकीयता के लिए सटीक तो है, पर इस (गजराज राव-नीना गुप्ता) रिश्ते के साथ आप जिस तरह का जुड़ाव महसूस करते हैं, दिल में काफी वक़्त के लिए ठहर सा जाता है. मैं इसे किसी ऐसे 80 की दशक के फिल्म का सीक्वल मान बैठना चाहता हूँ, जो कभी बनी ही नहीं. परदे पर एक ऐसा रोमांटिक जोड़ा जिसकी फिल्म ‘जस्ट मैरिड की तख्ती पर ‘...एंड दे लिव हैप्पिली आफ्टर’ के साथ ख़त्म हो गयी थी, अब लौटी है. प्रेमी-युगल को माँ-बाप बन कर रहने की जैसे सज़ा सुना दी गयी हो, उन्होंने भुगतनी मान भी ली हो, मगर फिर उनकी एक और ‘गलती उन्हें दोबारा परिवार और समाज के सामने कठघरे में ला खड़ा करती है.

‘बधाई हो के पीछे शांतनु श्रीवास्तव, अक्षत घिल्डीयाल और ज्योति कपूर का तगड़ा लेखन है, जो किरदारों को जिस तरह उनके स्पेस में ला खड़ा करता है, और फिर उनसे मजेदार संवादों की लड़ी लगा देता है; काबिल-ए-तारीफ़ है. फिल्म मनोरंजक होने का दामन कभी नहीं छोड़ती, हालाँकि फिल्म का दूसरा हिस्सा (इंटरवल के बाद का) थोड़ी हड़बड़ी जरूर दिखाता है, और अपने आप को समेटने में ज्यादा मशगूल हो जाता है. दिलचस्प है कि जिस तरह के हिम्मती कहानियों की कड़ी का हिस्सा है ‘बधाई हो, आयुष्मान उनमें से ज्यादातर का हिस्सा रह चुके हैं. इस तरह के किरदार में उनकी सहजता अब आम हो चली है, इसलिए ‘बधाई हो में उनसे ज्यादा ध्यान गजराज राव, नीना गुप्ता और सुरेखा सीकरी की तिकड़ी पर ही बना रहता है. गजराज जहां अपने किरदार की शर्मिंदगी और इस अचानक पैदा हुई सिचुएशन की उलझनों की बारीकियों को अपने चेहरे, हाव-भाव और चाल-चलन में बड़ी ख़ूबसूरती से ओढ़ लेते हैं, नीना गुप्ता अपने काबिल अभिनय से एकदम चौंका देती हैं. बड़े परदे पर उन्हें इस तरह खुल कर बिखरते देखे काफी अरसा हुए, शायद इसलिए भी. प्रेगनेंसी के दौर और इस दरमियान वाले दृश्यों में उनका उठना-बैठना-चलना भी उनके किरदार के प्रति आपकी हमदर्दी और बढ़ा देता है. सुरेखा जी के हिस्से कुछ बेहद मजेदार दृश्य आये हैं, जिन्हें आप लंबे समय तक याद रखेंगे.

आखिर में; ‘बधाई हो एक बेहद मनोरंजक पारिवारिक फिल्म है, जो कम से कम उस वक़्त तक तो आपको अपने माँ-बाप के बीच के रिश्तों को समझने की मोहलत देती है, जितने वक़्त तक आप परदे के सामने हैं. पति-पत्नी से माँ-बाप बनने तक के सफ़र में जिम्मेदारियों के बोझ तले दम तोड़ते अपने रोमांस को वापस जिलाना हो, या उनके गुपचुप रोमांस का जश्न मनाने की हिम्मत जुटानी हो; ‘बधाई हो जवान बच्चों से लेकर बूढ़े माँ-बाप तक सबके लिए है! [3.5/5]            

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