1968 में एक फिल्म बनी थी, ‘राजा और रंक’. राजा-महाराजाओं की कहानी थी. नायक (संजीव कुमार) कालकोठरी
में बंद है. उसे छुड़ाने की गरज़ से आई नायिका (कुमकुम) ‘मेरा नाम है चमेली’ गीत गाते-गाते पहरेदारों और सिपाहियों को शराब पिला-पिला कर धुत्त कर
देती है. नायक गिरफ़्त से बच निकलता है. ठीक 50 साल बाद, ‘ठग्स
ऑफ़ हिन्दोस्तान’ में नायक आमिर खान भी ऐसी ही कुछ जुगत लगा
रहे हैं, अमिताभ बच्चन के किरदार को अंग्रेजों के चंगुल से
छुड़ाने में. बस्स, शराब की जगह इस बार नशीले लड्डुओं ने ले ली है. ‘मेरा नाम है चमेली’ गीत मैं आज भी बड़े, छोटे हर परदे पर देख सकता हूँ.
उस गाने के साथ मेरा बचपन और बीते दौर की महक दोनों खिंचे चले आते हैं. ‘ठग्स ऑफ़
हिन्दोस्तान’ के साथ इस तरह की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है. न
कानों को प्रिय लगने वाला संगीत, ना ही पुराने दौर से जुड़े होने
का भरम. इसलिए इसे देखते वक़्त, अक्सर मुझे मनोज कुमार की ‘क्रांति’ के गानों की तलब लगने लगती है. आख़िरकार, जब सब कुछ पुराना सा, नकली और बासी
ही है, तो बीते हुए कल में झांककर पहले से मौजूद मनोरंजन खोज
लेने में हर्ज़ ही क्या है? हाँ, लेकिन
तब फिल्म इंडस्ट्री का सबसे बड़ा स्टूडियो (यशराज फिल्म्स) होने का अहम् ज़रूर दांव
पर लग जाएगा.
1795 के आसपास का वक़्त है. ज़रूर भारत
उस वक़्त ‘सोने की चिड़िया’ ही रहा होगा. कम से कम, फिल्म के भारी-भरकम सेट्स देख के
तो यही लगता है. खैर, खुदाबक्श जहाज़ी (अमिताभ बच्चन) आज़ाद का
नाम धरकर अंग्रेज़ों से लोहा ले रहा है. साथ है ज़फीरा (फ़ातिमा सना शेख़), जो पिता की
हत्या के बाद अंग्रेजों से रियासत वापस लेने की लड़ाई लड़ रही है. अंग्रेज़ अफसर
क्लाइव (लॉयड ओवेन) का मोहरा है, फिरंगी मल्लाह (आमिर खान). अव्वल
दर्ज़े का धोखेबाज़, जो गिरगिट से भी तेज़ अपना रंग बदलता है और पैसों के लिए कभी भी
अपना पाला बदल सकता है. एक फिरंगी मल्लाह के किरदार को थोड़ी रियायत दे दें; तो
फिल्म का कोई भी दृश्य या किरदार ऐसा नहीं है, जो आपको पूरी तरह प्रभावित करता हो या
चौंकाने में कामयाब होता हो. कहना गलत नहीं होगा कि फिल्म के लेखक-निर्देशक विजय
कृष्ण आचार्य फ़ॉर्मूले में बंधी एक बेहद औसत दर्जे की कहानी चुनते हैं, जिसका हर
मोड़ आपका जाना-पहचाना है. ऊपर से, समझदारी से ज्यादा सहूलियत के साथ एक दृश्य से
दूसरे दृश्य में जाने का आलसीपन. आज़ादी की लड़ाई से कहीं ज्यादा, फिल्म ज़फीरा के
बदले की कहानी बन के रह जाती है.
विजय कृष्ण आचार्य बड़े कैनवस की
फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं. यकीनी तौर पर, फिल्म के सेट्स और कैमरा शॉट्स
हर बार बड़े से और बड़े होते जाते हैं, और कहानी हर बार इस भव्यता के नीचे कहीं दब
कर दम तोड़ देती है. ताज्जुब तब होता है, जब आमिर जैसे समझदार भी जान-बूझ कर बड़ी
आसानी से इस साज़िश का हिस्सा और शिकार बन जाते हैं. फिल्म का 10 से 15 फ़ीसदी
हिस्सा सिर्फ बैकग्राउंड म्यूजिक के सहारे (वो भी वेस्टर्न स्टाइल का संगीत) किरदारों
को बड़ा करके दिखाने में खर्च हो जाता है. स्लो-मोशन कैमरा हो या लो-एंगल शॉट्स;
फिल्म कहानी में ड्रामा भले ही न पेश कर पाती हो, दृश्यों
में ठूंस-ठूंस कर ड्रामा भरती जरूर नज़र आती है. यशराज फिल्म्स में एक वक़्त तक (यश
चोपड़ा साब के ज़माने में) कहानी के लिए एक तयशुदा डिपार्टमेंट होता था. उनके जाने
के साथ ही शायद अब ये चलन भी जाता रहा, वरना ‘शान’ की तरह शाकाल
के अड्डे पर खुलेआम नाचते हुए भी भेष बदले होने का भरम पालने वाला दौर आज के परदे
पर क्यूँ कर शामिल होता?
अभिनय में सबसे निराश करते हैं अमिताभ
बच्चन. भारी-भरकम गेट-अप के बीच अक्सर या तो उन्हें बोलने की छूट नहीं मिलती, या फिर हमसे उनको सुनना छूट जाता है. परदे पर शानदार लगने-दिखने के अलावा
उनके किरदार में कोई धार नज़र नहीं आती, वरना एक वक्त था और वो फिल्में जब उनकी
संवाद अदायगी ही काफी थी रोमांचित करने को. फ़ातिमा के हिस्से कुछ अच्छे एक्शन
दृश्य ज़रूर आये हैं, पर अभिनय में उनकी काबलियत अभी भी ‘दंगल’ के भरोसे ही है. कटरीना कैफ महज़ गिनती के कुछ दृश्यों और दो अदद गानों तक
सीमित हैं. फिल्म में निर्देशन की कमजोरी इस बात से भी आंकी जा सकती है कि मोहम्मद
जीशान अय्यूब जैसे सह-कलाकार भी हंसोड़ ज्यादा लगते हैं,
अभिनेता कम. बच-बचा कर, आमिर ही हैं जो थोड़ी बहुत राहत देते हैं. उनकी आँखों में
धूर्तता और चाल-चलन में छल पूरी तरह समाया हुआ दिखता है, और एकरस
होते हुए भी कई बार मजेदार लगता है. फिर भी ये कहना कि फिल्म आमिर के लिए ही देखी जा
सकती है, ज्यादती हो जायेगी.
आखिर में; ‘ठग्स
ऑफ़ हिन्दोस्तान’ उन बेरहम ठगों के बारे में कम है, जो आज़ादी से पहले के भारत में पाए जाते थे, बल्कि
उन बेशरम ठगों के बारे में ज्यादा है, जो आज के दौर में सिनेमा और मनोरंजन के नाम
पर दर्शकों की समझ और पसंद को, कुछ भी ऊल-जलूल, थकाऊ और
वाहियात परोस कर ठग रहे हैं. आमिर खान और अमिताभ बच्चन जैसे बड़े-बड़े नामों को आगे
करके भीड़ खींचने वाले इन दिमाग़ी दिवालियों से जितनी दूर रहेंगे, आपकी और हिंदी सिनेमा
की सेहत के लिए बेहतर होगा! [1.5/5]
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