सरकारी बस स्टेशनों और रेलवे
प्लेटफार्म पर सरकते ठेलों पर बिकने वाले सस्ते उपन्यासों की शकल याद है? जिनके मुख्यपृष्ठ हाथ से पेंट किये गये 80 के दशक के मसाला फिल्मों का
पोस्टर ज्यादा लगते थे, और हिंदी साहित्य का हिस्सा कम?
जिनकी कीमत रूपये में भले ही कम रही हो, कीमत के स्टीकर
हिंदी में अनुवादित जेम्स हेडली चेज़ के साथ-साथ वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र
मोहन पाठक जैसे अपने मशहूर लेखकों के नामों से हमेशा बड़े दिखते थे? आम जनता के सस्ते मनोरंजन के लिए ऐसे मसालेदार साहित्य अंग्रेज़ी में ‘पल्प
फिक्शन’ और हिंदी में ‘लुगदी साहित्य’
के नाम से जाने जाते हैं. श्रीराम राघवन सिनेमाई तौर पर हिंदी की इसी ‘लुगदी’ को सिनेमा की उस धारा (फ्रेंच में NOIR या ‘नुआं’
के नाम से विख्यात) से जोड़ देते हैं, जहां किरदार हर मोड़ पर
स्वार्थी होकर किसी बड़े उद्देश्य के लिए अपनी भलमनसाहत गिरवी रखने को हमेशा तैयार
मिलते हैं. ऐसा करते वक़्त, किरदारों के ख़ालिस इंसानी ज़ज्बात अक्सर उन्हें ऐसी औचक
होने वाली आपराधिक घटनाओं की तरफ धकेल देते हैं, जिनसे निकलना और निकल कर अपनी
तयशुदा मंजिल तक पहुंचना और भी दूभर लगने लगता है.
रहस्य और रोमांच से भरपूर ‘अन्धाधुन’ मनोरंजन के लिए छलावों से भरी एक ऐसी मजेदार दुनिया परदे पर रखती है,
जहां जो दिखता है, सिर्फ उतना ही नहीं है. यहाँ जो कुदरती तौर पर नहीं भी देख
सकता, वो भी अपने मतलब के दायरे में आने वाली चीजें भली-भांति देख सकता है. एक पति
(अनिल धवन) का क़त्ल हुआ है. पत्नी (तब्बू) शक के दायरे में है. मौका-ए-वारदात पर
इत्तेफ़ाक से मौजूद एक पियानो बजाने वाला (आयुष्मान खुराना) क़त्ल का गवाह तो है, पर आँखों से अंधा. उसके ‘देखे’ पर कोई यकीन कैसे करेगा? इससे आगे कहानी का कोई भी हिस्सा बताने पर ‘अन्धाधुन’ अपनी राजदारी खो सकता है, अब आप फिल्म के हद
रोमांचक होने का अंदाजा इसी एक बात से लगा सकते हैं. हालाँकि राघवन जुर्म होते हुए
परदे पर कातिल को ठीक आपकी नज़रों के सामने रखते हैं, और आप दूसरी आम अपराध-फिल्मों
की तरह कम से कम इस पेशोपेश में नहीं पड़े रहते कि कातिल कौन हो सकता है?; फिर भी फिल्म देखते वक़्त, आपकी तल्लीनता परदे पर कुछ किस कदर बनी रहती
है कि कहानी के साथ-साथ किरदारों के हर दांव पर आप अपनी सीट से उछल पड़ते हैं.
बीते दौर के चित्रहार और छायागीत को
फिल्म की शुरुआत में श्रद्धांजलि देने वाले राघवन, ‘अन्धाधुन’ में अजीब, अनोखे, रंगीले
किरदारों की झड़ी सी लगा देते हैं. अनिल धवन परदे पर 70 के दशक की पुरानी फिल्मों
के हीरो के किरदार में हैं, जो वो खुद भी असल जिंदगी में उसी
मुकाम पर हैं. यूट्यूब पर अपनी ही फिल्मों (हवस, 1974) का गाना देखते हुए, अपनी ही फिल्मों (हनीमून, चेतना) के पोस्टरों से पटे पड़े घर में टहलते
हुए, पियानो पर अपने ही गानों (पिया का घर, 1972) की फरमाईश
सुनते हुए अनिल धवन फिल्म का सबसे मजेदार पहलू बन कर उभरते हैं. इस भूमिका में
उनका चुनाव उस दौर के सिनेमाप्रेमियों के लिए किसी जश्न से कम नहीं लगता. तब्बू का
किरदार शुरू से ही जता देता है कि वो कितनी शातिर हो सकती है? क्रैब (केकड़ा) को
उबलते पानी में डालने से पहले डीप फ्रीज़र में डाल कर शांत कर देने का उसका तरीका
फिल्म के अगले हिस्सों में उसके इरादों की एक झलक भर है. और फिर अपना पियानो प्लेयर?
एक अधूरी धुन को पूरा करने में लगा एक ऐसा आर्टिस्ट, जो एक्सपेरिमेंट के नाम पर
किसी हद तक जा सकता है. एक पुलिस वाला है, जो प्रोटीन के लिए
16-16 अंडे रोज खाता है, और एक उसकी बीवी, जो उसे धोखा देने
पर ताना भी सबसे पहले इसी बात के लिए देती है.
‘अन्धाधुन’ आयुष्मान
की सबसे मुश्किल फिल्म है. कलाकार के तौर पर उनकी मेहनत और शिद्दत साफ़ नज़र आती है.
फिल्म की कहानी में छलावे कितने भी हों, पियानो पर उनकी
उंगलियाँ पूरी सटीक गिरती, उठती,
फ़िसलती हैं. कुछ न देख पाने और कुछ न देख पाने को जताने की कोशिश में उनकी क़ाबलियत
निखर कर सामने आती है, पर इसके बावजूद फिल्म बड़ी आसानी से तब्बू के पाले में चली
जाती है. राघवन जिस तरह तब्बू के किरदार में परतें खोजते हैं, तब्बू उससे कहीं आगे जाकर कामयाबी हासिल करती हैं. अक्सर तब्बू को हम
उनकी संजीदा एक्टिंग के लिए जानते हैं, इस किरदार में उनकी
बेपरवाही चौंकाती है. कई बार तो उनकी कोशिश नज़र भी नहीं आती, कुछ इतनी आसानी से
बड़ा कर जाती हैं. अनिल धवन परदे पर बिजली की तरह चमकदार दिखते हैं, ख़ुशमिज़ाजी फैलाते हैं. राधिका आप्टे के हिस्से इस बार कम स्क्रीनटाइम हाथ
आया है. जाकिर हुसैन, मानव विज, अश्विनी कलसेकर जैसे सह-कलाकार कहीं से भी कम नहीं
पड़ते.
अन्त में;
‘अन्धाधुन’ श्रीराम राघवन के थ्रिलर-प्रेम की एक और सफल कड़ी
है, जहां सिनेमा और साहित्य की सस्ती माने जाने वाली कुछ धाराओं को कपोल-कल्पना की
ऊँची उड़ानों में पूरे गर्व के साथ ‘सेलिब्रेट’ किया जाता है. हालाँकि फिल्म घोर
मनोरंजन की नज़र से ‘जॉनी गद्दार’ की तरफ ज्यादा झुकी नज़र आती है, और इंसानी ज़ज्बातों की गहरी दखलंदाज़ी वाली मार्मिक और संजीदा कहानी के
तौर पर ‘बदलापुर’ की तरफ कम; फिर भी दिलचस्प उतार-चढ़ावों से
भरपूर एक ऐसी फिल्म, जो अपने ज्यादातर वक़्त में आपको अपनी सीट पर बांधे रक्खे.
[3.5/5]
ग़ज़ब लिखा है, जल्दी ही देखनी पड़ेगी
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