Monday, 1 October 2018

नाच भिखारी नाच: एक मास्टरक्लास, भोजपुरी सिनेमा के लिए! [5/5]


काले-सफ़ेद घुंघराले बालों से लदे, 70 साला मर्दाना सपाट सीने पर सैकड़ों बार पहनी जा चुकी बदरंग सूती ब्रा चढ़ रही है. कपड़ों की कतरनों से, ठूंस-ठूंस कर दोनों कटोरियाँ भरी जा रही हैं. पर्दों के पीछे से बच्चे आँखें फाड़े ताक रहे हैं. बिहार के छपरा जिले में, एक छोटे से गाँव में मंच तैयार है. भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर का नाटक ‘बिदेसिया खेला जाएगा. मर्द ही औरतों की भूमिका में नाचते, गाते, अभिनय करते नज़र आयेंगे. शिल्पी गुलाटी और जैनेन्द्र दोस्त की भोजपुरी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘नाच भिखारी नाच’ बिहार की एक बेहद ख़ास विलुप्त होती सांस्कृतिक, सामाजिक विधा ‘लौंडा नाच’ को, भिखारी ठाकुर के मार्मिक सन्दर्भ के साथ न सिर्फ गहरे जानने की कोशिश करती है, बल्कि सिनेमा को उससे जुड़े कुछ बेहद नायाब कलाकारों की निजी जिंदगी का हिस्सा बनने का भी मौका देती है. समाज के निचले तबकों से आने वाले, नाच के दौरान भड़कीले रंगों से लिपे-पुते इन मनोरंजक चेहरों को इनकी आम जिंदगी में पढ़ते हुए, हर बार ज़ज्बाती तौर पर आप अपने आपको इनके और करीब पाते हैं.

लखीचंद मांझी जी के यहाँ कुछ खो गया है. ढूंढा जा रहा है. मांझी घरवालों पर बरस रहे हैं, “भिखारी ठाकुर का नाम लिखा था, यहीं तो था’. बात पुरस्कार के रूप में मिले सुनहरे फ्रेम की हो रही है, पर इसे आप असल जिंदगी का दर्द और तंज भी समझ सकते हैं. भिखारी ठाकुर अब इतनी सहजता से नहीं मिलते. ढूँढने पड़ते हैं. कभी दहेज़ जैसी सामाजिक कुरीतियों और भौगोलिक पलायन जैसे जनसामान्य से जुड़े मुद्दों को निशाने पर लेने वाली ‘लौंडा नाच’ की जगह अब भौंडे, अश्लील और बेशर्मी भरे ‘ऑर्केस्ट्रा’ ने ले ली है. राम चंदर मांझी का गुस्सा जायज़ है, ‘नाच कला है. नाच में भाव होने चाहिए. आजकल तो बस कसरत होती है, नाच के नाम पर.

एक वक़्त था, भिखारी ठाकुर के लोकनाटकों की नींव पर अपनी जमीन तलाशते नाच, सामाजिक और आर्थिक तौर पर दबे-कुचले समाज़ के लिये न सिर्फ एक सहज मनोरंजन का साधन होते थे, बल्कि एक तरह से उनकी बदहाल जिंदगी को ढर्रे पर लाने और एक नई दिशा मुहैया कराने के लिए भी पूरी ज़िम्मेदारी दिखाते थे. 75 साल के शिवलाल बाड़ी याद करते हैं कि कैसे भिखारी ठाकुर के नाटक ‘बेटी बेचवा ने बिहार की उस अमानवीय कुरीति को जड़ से उखाड़ फेंका था, जिसमें शादी के लिए बेटियों की बाज़ार में जानवरों जैसे नुमाईश की जाती थी.

शिल्पी गुलाटी और जैनेन्द्र दोस्त भिखारी ठाकुर, उनके नाटकों और नाच-कला से सीधे-सीधे तौर पर जुड़े चार ख़ास किरदारों के जरिये भोजपुरी भाषा के एक ऐसे पहलू को हमारे सामने खोल कर रख देते हैं, जो सिनेमा और संगीत की हालिया बदसूरती से एकदम अलग, आपको सीधे-सादे-सच्चे चहेरों की साफ़-बयानी में और खूबसूरत लगती है. गाँव-गिरांव के लम्बे-लम्बे शॉट्स (जिसमें बाड़ी अपने ‘महराज जी का घर दिखा रहे हैं), गंवई चेहरों के एकदम नज़दीक बनते ईमानदार क्लोज-अप्स और नाटकों में रंगीन चेहरों के आगे-पीछे लहराता उदित खुराना का कैमरा फिल्म को जितना यथार्थ के करीब रखता है, अपने आस-पास मनोरंजन और ख़ूबसूरती को भी उतनी ही तवज्जो से ढूंढ लेता है. अपने वक़्त में श्रीदेवी और अमिताभ बच्चन से भी ज्यादा लोकप्रिय, 92 साल के राम चंदर मांझी चेहरे पर रंग पोत कर, पलकें उठाते हुए जिस तरह अपने जनाना किरदार में घुस कर देखते हैं, उदित इस एक पल को ही कैद कर पाने के लिए बधाई के पात्र बन जाते हैं.

‘नाच भिखारी नाच एक लुप्त होती कला से जुड़े सच्चे कलाकारों के दर्द, कसक और नाउम्मीदी से भरे पलों में भी कला के लिये अटूट प्रेम और लगन का एक बेहद मनोरंजक जश्न है. एक तरफ जहां राम चंदर छोटे निचले तबके से जुड़ाव की वजह से नाच के प्रति बड़ी जातियों की उपेक्षा पर पूरी तबियत से बोल रहे हैं, वहीँ शिवलाल बाड़ी हैरत में हैं कि जैनेन्द्र की फिल्म अभी पूरी क्यूँ नहीं हुई, जबकि वो साल भर पहले भी उनके साथ कैमरे पर बात कर चुका है? राम चंदर मांझी की पोती पिंकी कैमरे पर ही अपनी शिकायत दर्ज करा रही है, “बाबा को साबुन से नहाना पसंद नहीं. कहते हैं, गंगाजी गया था, वहीँ की मिट्टी पूरे देह पर मल ली. बताओ!”.

अंत में; हालिया डाक्यूमेंट्री फिल्मों में जिस तरह का इमोशनल कनेक्ट, जैसी परिपक्वता, जैसा रिसर्च, जैसी संजीदगी और काबलियत शर्ली अब्राहम और अमित मद्धेशिया की ‘दी सिनेमा ट्रेवलर्स’ ने टूरिंग टॉकीज को लेकर दिखाई थी, शिल्पी और जैनेन्द्र की ‘नाच भिखारी नाच उसी की एक योग्य कड़ी के रूप में उभर कर आती है. बेहद ज़ज्बाती, बेहद मनोरंजक, बेहद जरूरी. राम चंदर छोटे फिल्म में कहते हैं, “गाँव में सब मानता है, हम अच्छे आदमी हैं. ये सब नाटक की वजह से. नाटक में जो किरदार हम करते हैं, उसकी वजह से”. किसी भी कला, विधा की और जिम्मेदारी भी क्या होती है? समाज की गिरती दशा को सही दिशा देना.

भोजपुरी भाषा, सिनेमा और संगीत को उसका स्वर्णिम अतीत दिखलाने के लिए ‘नाच भिखारी नाच अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को पूरी शिद्दत से निभाती है, मगर क्रांति अकेले नहीं आएगी. कुछ कोशिशें दर्शकों के तौर पर भी आपको करनी होगी. फ़िलहाल, भोजपुरी सिनेमा से जुड़े लोगों के लिए ‘नाच भिखारी नाच किसी मास्टरक्लास से कम नहीं! [5/5]                              

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