Saturday 29 September 2018

सुई धागा: उम्मीदों से छोटी, पर बेहद प्यारी! [3/5]


ज़िन्दगी की चादर में उम्मीदों के पैबंद लगाने हों, या दुनिया भर से लड़ते-झगड़ते, उधड़ने लगे छोटे-छोटे सपने को रफ़ू करना हो, तो सुई-धागे का मेलजोल जरूरी हो जाता है. छोटे शहरों की आँखों में पलने वाले मोटे-मोटे सपनों के साकार होने की कहानी हिंदी फ़िल्मी परदे पर न जाने कितनी बार देखी-दिखाई जा चुकी है. शायद इतनी दफ़े कि अब आपको ये जानने में कोई दिक्कत नहीं होती कि ऊंट किस करवट बैठेगा? खुद यशराज फिल्म्स भी ‘बैंड बाजा बारात’ जैसी फिल्मों के साथ इस कामयाब चलन का हिस्सा रहा है. शरत कटारिया की ‘सुई धागा’ यशराज फिल्म्स की ही प्रस्तुति है, और एक बेहद प्यारी फिल्म होने के बावज़ूद, कहीं न कहीं दर्शकों के मन में ‘यही होगा’ और ‘यही होना था का दंभ पैदा होने से रोकने में असफल रह जाती है. सूरत-सीरत और स्वभाव में अपनी ही बेहतरीन फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ से अच्छा-खासा मेल खाने के बाद भी, कटारिया फिल्म को बड़ी बेदर्दी से जाने-पहचाने रास्तों पर डाल कर, घिसे-पिटे उतार-चढ़ावों पर लुढ़कने से बचा नहीं पाते.

मौजी (वरुण धवन) और ममता (अनुष्का शर्मा) की कहानी में सुई-धागा सपनों को पाने का उनका एक जरूरी जरिया तो है, पर दूसरी तरफ वो खुद भी अपनी कहानी के सुई-धागा ही है, जिनमें शादी के सालों बाद भी बेहतर तालमेल की गुंजाईश अभी भी बरकरार है. मौजी अपने मालिक के कहने पर कभी कुत्ता, तो कभी गली का सांड बन के उनका मनोरंजन करता है. दिक्कत ये है कि उसे ये सब करने में कुछ गलत भी नज़र नहीं आता, जब तक उसकी बीवी ममता इस बारे में उससे बात नहीं करती. ममता मौजी की तरह नहीं है. समझदार है. मौजी को सपने देखना सिखा रही है. वो सपना, जिसमें वो खुद उसके साथ-साथ चल सके. हाथ पकड़ के. सर उठा के.

शरत कटारिया लोअर मिडिल क्लास की दुनिया को परदे पर जिंदा करने में जैसी बारीकी और काबलियत दिखाते हैं, हालिया दौर में शायद ही कोई और कर रहा हो. वरना फिल्मों का नायक दुकान में बनियान-पजामा पहने बैठा ऑडियो कैसेट्स में गाने रिकॉर्ड करने वाला प्रेम प्रकाश तिवारी या पेड़ के नीचे सिलाई की दुकान लगाए बैठा, कबूतरों को नाम से बुलाने वाला मौजी हो, कितनी बार देखने को मिलता है? अम्मा (यामिनी दास) गुसलखाने में फिसल कर गिर गयी हैं, दर्द में हैं, पर बाल्टी में पानी भरने का अधूरा काम याद दिलाना नहीं भूल रहीं. डॉक्टर कह रहा है, हार्ट अटैक है पर अम्मा को इलाज़ पता है, ‘’रोज सुबह चौक तक पैदल टहलने लगूंगी, हो जायेगा ठीक. बहू को घर लौटने में देर हो रही है, बाऊजी (रघुवीर यादव) अम्मा के लिए खुद रोटियाँ सेंकना शुरू कर चुके हैं. पड़ोसी छोटी सी लड़ाई पर डर कर चिल्ला रहा है, ‘100 नंबर पे फ़ोन लगाओ कोई. बगल वाली नाराज़ चाची समोसे-चाय के बदले सुलह करने पर तैयार हो गयी हैं.

रोजमर्रा की बातचीत वाले मजेदार संवादों, असलियत के करीब-करीब दिखने वाले किरदारों और मिडिल क्लास की दबी-दबी चाहतों से भरा-पूरा माहौल बना कर, कटारिया अपने कलाकारों को अदाकारी का पूरा मौका देते हैं. अभिनय में वरुण की ईमानदारी कोई भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकता. उनकी कोशिशें हर बार कामयाब न भी हों, तब भी उनका असर आप पर कम नहीं होता. अनुष्का कुछ-कुछ दृश्यों में जरूरत से ज्यादा कर जाती हैं, खास तौर पर जहां जहां उनका किरदार फिल्म में ज़ज्बाती होने की तरफ बढ़ता है. आसान पलों में उनकी छवि बेहतर नज़र आती है. रघुवीर यादव बेहतरीन हैं. जाने क्यूँ वो जब भी परदे पर होते हैं, मैं फ्रेम में कहीं हारमोनियम तलाशने लगता हूँ और इस उम्मीद में आँखें चमक जाती हैं, कि अभी उन्हें गाते हुए सुनूंगा. यामिनी दास इस फिल्म की पंकज त्रिपाठी हैं. फरक नहीं पड़ता कि वो फ्रेम में क्या कर रही हैं, फ्रेम में उनका होना भर न सिर्फ गुदगुदाता है, ख़ूब तबियत से माँओं की याद भी दिलाता है.   

‘सुई धागा में शरत कटारिया अपने किरदारों के आँखों में सपने तो बहुत चमकीले, नायाब और वाजिब बुनते हैं, पर जब उन्हें उन सपनों तक पहुंचाने की बारी आती है तो नाटकीयता की रौ में कुछ इस कदर बह जाते हैं कि किरदारों के इमोशन्स से दर्शकों के भरोसे की डोर टूटने लगती है. अपना खुद का कुछ करने के चाह में, मौजी और ममता एक सरकारी सिलाई मशीन पाने के लिए जिस तरह का कड़ा संघर्ष करते हुए दिखाए जाते हैं, जबरदस्ती का और ठूंसा हुआ लगता है. फिल्म का अंत भी आपको बिलकुल चौंकाता नहीं. ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जायंगे में फरीदा जलाल सालों से दोहरा रही हैं, ‘सपने देखो, सपने देखने में कोई हर्ज़ नहीं है, कुछ गलत नहीं, बस्स उनके पूरे होने की शर्त मत रखो.’’ काश, ‘सुई धागा अपने सपने पूरे कर लेने की शर्त से बचने पाती, और एक आजमाए हुए अंत की तलाश के बजाय एक बेहतर शुरुआत की तरफ बढ़ पाती!

इन सबके बाद भी, मैं चाहूँगा कि इन किरदारों से आप उन्हीं की चहारदीवारी के भीतर एक बार जरूर मिलें, और देखें...बेटे को बाप से अखबार के दूसरे पन्नों के लिए लड़ते हुए, बाऊजी का बिस्तर पर पड़ी अम्मा को मोबाइल पर उनके पसंदीदा टीवी सीरियल के एपिसोड्स दिखाते हुए, मौजी-ममता के चुराये हुए अन्तरंग पलों में बस के मुसाफिरों को गाने की धुन पर ऐसे लहराते हुए, जैसे खुद बस घुमावदार रास्तों से गुजर रही हो. कई बार सफ़र का मुकम्मल होना इतना अहम् नहीं होता, जितना सफ़र के दौरान बिताये छोटे-छोटे यादगार पलों का जश्न मनाना! [3/5]

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