डरावनी फिल्में देखते वक़्त, अक्सर हम
सब कभी न कभी अनजान डर की आहट सुनकर, डरने से बचने के लिए आँखें मींच बैठते हैं, या चेहरा ही परदे से दूर घुमा लेते हैं. अच्छी डरावनी फिल्मों में ऐसा
ज्यादातर वक़्त होना चाहिए, सिनेमा का यही चलता-फिरता पैमाना है. आप नहीं चाहते कि आपके
चहेते किरदार के साथ परदे पर कुछ भी बुरा हो, बल्कि कई बार तो आप खुद सिनेमाहाल
में बैठे होने की हकीक़त से अलग, अपनी सीट से उचक कर उसे आने
वाले खतरे से आगाह तक करने को तैयार हो जाते हैं. ऐसी फिल्मों में और ऐसे हालात
में, फिल्म के किरदार के लिए दर्शकों का भावुक होना जायज़ भी
है, और सामान्य भी. विनोद कापरी की ‘पीहू’ इस मुकाम से कहीं एक
कदम आगे बढ़ जाती है, या यूँ कहें तो सिनेमा में कुछ उत्कृष्ट, कुछ अलग, कुछ अनोखा
करने की अपनी ही सनक में नैतिक जिम्मेदारियों और मानवीय संवेदनाओं की एक अदृश्य
सीमा-रेखा लांघ जाती है.
आखिर ऐसा कितनी बार होता है कि परदे पर
बड़ी से बड़ी त्रासदी झेलते वक़्त मासूम किरदारों की मानसिक स्थिति से कहीं ज्यादा
फ़िक्र, आपको कैमरे के सामने उन किरदारों को निभाने वाले काबिल कलाकारों की होने
लगे? ‘द मशीनिस्ट’ में क्रिस्चियन बेल
को तो आप सिनेमा की वेदी पर तपते हुए बेशक सराह सकते हैं, ‘पीहू’ में महज़ 2 साल की मायरा विश्वकर्मा को उन भयावह परिस्थितियों से गुजरते भला
देख भी कैसे सकते हैं? इस धागे भर की समझ ही सिनेमा के प्रति
आपकी जिम्मेदारियों का पूरा कच्चा-चिट्ठा है. ‘पीहू’ शायद
हिंदी सिनेमा की सबसे विचलित कर देने वाली फिल्म होगी, खासकर
पैरेंट्स के लिए, पर इसके साथ ही एक गैर-ज़िम्मेदार, असंवेदनशील और क्रूर फिल्म भी.
कम से कम मेरे और मायरा के लिए तो रहेगी ही.
2 साल की पीहू (मायरा ‘पीहू’
विश्वकर्मा) घर में अकेली नहीं है. मम्मी हैं, सोयी हैं, पर उठ नहीं रहीं. पिछली रात को ही पीहू का बर्थडे था, गुब्बारे अभी भी रह-रह कर अपने आप फट रहे हैं. पापा ज़रूरी मीटिंग के
सिलसिले में कोलकाता गये हैं. मम्मी से लड़-झगड़ कर, पर पीहू को नहीं पता. पीहू सोकर
उठती है, खुद ब्रश करती है, दरवाजे के
पास से अखबार उठाती है, गांधी जी की फोटो देखकर ‘बापू-बापू’
कह चहक उठती है. फ़ोन बज रहा है, पर पीहू की पहुँच से ऊपर है.
पीहू सीढ़ियों से नीचे जा रही है, और अपने से बड़ा मोढ़ा
(स्टूल) उठाकर खुद ऊपर ला रही है. आपकी सांस अटक जाती है, जब
जब सीढ़ियों की एक एक पायदान पर पीहू ऊपर चढ़ रही है, लेकिन डर
का ये माहौल तो अभी और गहराने वाला है. खाली दिखने वाले इस घर में भूत-प्रेत तो कहीं
नहीं हैं, फिर भी दानवों की कमी नहीं. इस्तरी ऑन है, और ऑटोकट
का बटन खराब. पीहू ने रोटी सेंकने के लिए गैस बर्नर जला तो दिये थे, बंद करना नहीं
आ रहा. जगह-जगह घर में तारों का जंजाल फैला है. बालकनी का दरवाजा खुला है. गीज़र भी
‘बीप’ कर रहा है, और इन सबके बीच पीहू फ़िनायल को दूध समझ कर अपनी बोतल में भर रही
है.
सिनेमा के नज़रिए से विनोद कापरी की
हिम्मत और काबलियत पर कहीं से कोई ऊँगली नहीं उठाई जा सकती. पेशे से पत्रकार रहे
कापरी को अखबार की सनसनीखेज सुर्ख़ियों में फिल्म की कहानी ढूँढने का हुनर बखूबी
आता है. 90 मिनट से थोड़ी ज्यादा की पूरी फिल्म का दारोमदार 2 साल की बच्ची के
किरदार पर डाल देने का माद्दा कम ही फ़िल्मकारों को फायदे का सौदा लगेगी. कापरी
पूरी चतुराई से पीहू के इर्द-गिर्द उन सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों या इस्तेमाल की
दूसरी घरेलू चीजों को ‘भयानक खतरे’ की तरह पेश करते हैं,
जिनके साथ ‘बच्चों की पहुँच से दूर रखें’ जैसी हिदायत इतनी आम है कि अक्सर हम पढ़ने
की ज़हमत भी नहीं उठाते. यही नहीं, मायरा विश्वकर्मा के रूप
में उन्हें एक ऐसा बेपरवाह कलाकार नसीब हुआ है, जिसे एक पल
को भी कमरे में कैमरे की मौजूदगी से न परहेज़ है, न चिढ़, ना
ही कोई झिझक. फिल्म के हर फ़्रेम में मायरा स्वक्छंद हैं,
आज़ाद तितली की तरह. न उसके ऊपर लिखे-लिखाये संवादों का कोई बोझ ही नज़र आता है, ना ही अभिनेता के तौर पर ‘अब क्या करूं’ की उलझन. मायरा बहती चली जाती है,
और आप उसे रोकना भी नहीं चाहते.
...फिर आप कहेंगे, दिक्कत क्या है? सिनेमा
में अक्सर बाल-कलाकारों के मासूम ज़ेहन को आंकने में फ़िल्मकार अपनी संवेदनशीलता खो
बैठते हैं. परदे के लिए ‘परफॉर्म’ कराते वक़्त हम स्वार्थी
होकर सोचते भी नहीं कि वो खुद किस ज़ज्बाती झंझावात से, और कितनी मुश्किल से लड़ रहे
होंगे? बीते दौर के कितने ही बाल-कलाकारों ने अपनी दिमाग़ी लड़ाई बड़े होने तक लम्बी
लड़ी है. सारिका उनमें से एक हैं. ‘पीहू’ सच्ची घटनाओं पर
आधारित है. 2 साल की किसी बच्ची के साथ असलियत में इस तरह का जो भी हादसा हुआ होगा, दिल चीर देने वाली घटना है. यकीन मानिए, हम और आप
अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि उसकी मानसिक हालत उस वक़्त क्या रही होगी, या उस वक़्त का सदमा अब उसे किस तरह झेलना पड़ रहा होगा? ‘पीहू’ एक कहानी है, जिसका कहा जाना जरूरी भी हो सकता है, आपको उस खतरे से आगाह करने के लिए, जो आपको खतरा लगता ही नहीं; पर इस
प्रयास में, पूरी देखरेख और जागरूकता के बावज़ूद, मायरा को सिनेमा के नाम पर झोंक
देने का जोखिम कतई प्रशंसनीय नहीं हो सकता. हालाँकि टेलीविज़न के रियलिटी शोज़ में
हम ऐसा होते हुए हर हफ्ते देखते आये हैं, सिनेमा में इस तरह की
सीनाजोरी पहली बार है.
आखिर में, ‘पीहू’ एक डरावनी फिल्म है. माँ-बाप के लिए ख़ास तौर पर, जो
अपने मासूमों की देखरेख में अक्सर जाने-अनजाने लापरवाह हो बैठते हैं. साथ ही, एक बेशर्म, भयावह फिल्म भी जो सिनेमा से ऊपर उठकर, नैतिक
और संवेदनशील होने की समझदारी दिखाने से आँखें मूँद लेती है. उम्मीद करता हूँ, मायरा जल्द ही ‘पीहू’ की गिरफ़्त से बाहर निकल
आये...सही-सलामत.
पुनश्च: इस बार रेटिंग नहीं. कम आंक
कर मायरा की लाज़वाब अदाकारी, और ज्यादा आंक कर फिल्म की असंवेदनशीलता को नकार नहीं
सकता.
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