इंडियन फिल्म इंडस्ट्री में ‘विज़नरी’
होने का सिर्फ एक ही मतलब है, आप कहानी कहते वक़्त दृश्यों को कितना बड़ा और कितना ‘महानाटकीय’ बना पाते हैं. टेक्नोलॉजी की मदद से एक ऐसी अजीब-ओ-गरीब दुनिया रच डालिए, जहां बड़े-बड़े सेट्स हों, कंप्यूटर जी की कृपा से सैकड़ों
की भीड़ को लाखों में बदल दिया जाता हो, थका देने वाले एक्शन
सीक्वेंस की भरमार हो, चाहे उनकी बनावट क्यूँ न एक जैसी ही हर
बार हो, पर इन सबके साथ कहानी के मूल में मनोरंजन पेश करने
की जो परिकल्पना हो, वो वही पुराने ढर्रे का बासीपन लिए हो. उसमें किसी भी तरह का
बदलाव या उससे किसी भी किस्म का छेड़छाड़ बरदाश्त नहीं. शानदार विज़ुअल ग्राफ़िक्स के
शो-रील जैसी शंकर की नयी साइंस-फिक्शन फ़िल्म ‘2.0’ सिनेमा
में टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के लिए परदे, कैमरे और अपने अपने ग्राफ़िक मशीनों के
पीछे बैठे सैकड़ों लोगों की मेहनत ज़ाया करने के अलावा और किसी काम नहीं आती. भारत
की सबसे महंगी फिल्म होने के तमगे के नीचे ‘अच्छी फिल्म’ होने की शर्त कहीं दब न
जाए, फिल्म से जुड़े तकरीबन सभी लोग ये बात बड़ी सहूलियत से नज़रंदाज़
कर देते हैं.
चेन्नई इक नयी मुसीबत से जूझ रहा है.
शहर के सभी लोगों के हाथों से मोबाइल फ़ोन उड़-उड़ कर गायब हो रहे हैं. जल्द ही, टेलिकॉम इंडस्ट्री से जुड़े लोगों की रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत भी हो
रही है. डॉ. वशीकरण (सुपरस्टार रजनी) के पास अपने सुपर-रोबोट चिट्टी को वापस लाने
के अलावा और कोई चारा नहीं है. हालाँकि उनके पास एक और सुपर-रोबोट है नीला (एमी
जैक्सन), पर वो घरेलू इस्तेमाल के लिए है. ज्यादातर वक़्त टीवी सीरियल्स और फ़िल्में
देखती रहती है. फिल्म में हीरोइन होने से ज्यादा कुछ करना, उसके प्रोग्राम में ही
नहीं है. बेचारी. वैसे भी रजनीकान्त की फिल्म में जहां चार—चार रजनी (डॉ. वशीकरण, चिट्टी, चिट्टी 2.0, चिट्टी
माइक्रो बॉट्स) हों, एमी हो न हो, क्या ही फर्क पड़ता है? बहरहाल, पता चलता है कि इस नयी मुसीबत के पीछे पर्यावरणविद्
पक्षीराजन (अक्षय कुमार) का हाथ है, जो मोबाइल रेडिएशन की
वजह से पक्षियों पर होने वाले खतरनाक असर से दुखी भी हैं, और
मनुष्य प्रजाति से खासे नाराज़ भी.
एक वक़्त था, फिल्म-निर्देशक
शंकर अपनी कहानियों और किरदारों के होने की वजहों में महा-मनोरंजन खोजने की कोशिश
करते थे. ‘इंडियन’ हो या ‘नायक’, किरदारों
का संघर्ष समाज के बड़े तबकों के हित के लिए होते हुए भी बेहद ज़मीनी था, और नाटकीय
भी सिर्फ इतना कि अनदेखा होते हुए भी असल जिंदगी में ‘हो सकने’ की सम्भावना के थोड़ा
करीब. ‘2.0’ विज़ुअल इफेक्ट्स की दुनिया में मौजूद संभावनाओं
को निचोड़ लेने की सनक से ज्यादा और कुछ नहीं है. कहानी में कल्पना के परे जाने पर कंप्यूटर
ग्राफ़िक्स के मदद की जरूरत अक्सर सभी छोटे-बड़ों को पड़ती ही रहती है, ‘2.0’ को कंप्यूटर ग्राफ़िक्स में कुछ बड़ा कर गुजरने की चाह में, कुछ
अनूठा गढ़ने की ललक में कहानी की जरूरत पड़ती है. वो भी, एक ही तरह की टेक्नोलॉजी,
बार-बार. ‘रोबोट’ इस मामले में थोड़ी बेहतर थी. नयेपन की कसार
रह रह की पूरे कर देती है. मैग्नेटिक फील्ड पैदा करके चिट्टी का गुंडों से उनके
लोहे के हथियार छीन लेना और फिर उन्हीं के साथ थोड़े-बहुत बदलाव के साथ, माँ दुर्गा
या काली जैसा एक ‘देवरूप’ ले लेना, पूरी भी नया भी था और भारतीयता
का ख़ूब सारा पुट लिए हुए भी. ‘2.0’ वैसा एक भी चित्र दिमाग
में छोड़ जाने में असफल रह जाता है. लाखों मोबाइल्स मिला के एक दैत्याकार पक्षी का
रूप धरने वाला प्रयोग बार-बार दोहराया जाता है. चिट्टी के सैकड़ों मॉडल्स का
अलग-अलग रूप में जुड़ना-टूटना-बनना भी पिछली फिल्मों से एकदम नया नहीं है.
फिल्म रजनीकान्त के ऊँचे कद और उनके
चाहने वालों को ख़याल में रख कर ही अपना हर कदम आगे बढ़ाती है. हालाँकि अभिनय के नाम
पर उनसे कुछ भी लाज़वाब कर गुजरने की उम्मीद तो किसी को भी नहीं होगी, ख़ास कर ऐसी फिल्म में जहां सब कुछ कंप्यूटर पर रचा-रचाया हो, फिर भी रजनीकांत परदे पर अपने होने से अलग कुछ ख़ास करते नज़र नहीं आते.
अक्षय कुमार के साथ थोड़ी नरमी बरती जा सकती है, क्योंकि उनके
अभिनय का बहुत कुछ हिस्सा उनके भारी-भरकम गेट-अप के पीछे छुप जाता है. इतने के
बावजूद भी, वो गिनती के दो-चार दृश्यों में अपने किरदार के
सनकपन से सिहरन पैदा कर जाते हैं. हालाँकि दुखद है कि उनके किरदार का मकसद नेक
होते हुए भी, शंकर उन्हें एक खलनायक से ज्यादा ऊपर उठने की छूट नहीं देते. ना ही, दर्शकों
को उनके किरदार के साथ हमदर्दी या सहानुभूति रखने का मौका.
आखिर में; ‘2.0’
ढाई घंटे का एक ‘विज़ुअल ग्राफ़िक्स पॉर्न’ है, जिसे आप चाह कर भी ज्यादा देर तक
सराह नहीं पायेंगे. हाँ, बहुत मुमकिन है कि कुछ महीने में फिल्म
के ख़ास एक्शन दृश्यों की ‘क्लिपिंग्स’ आपके फ़ोन के ‘व्हाट्स एप्प’ इनबॉक्स में धड़ाधड़
आनी शुरू हो जाएँ, और अगर ऐसा हुआ तो सोचिये, कितनी बड़ी
ठिठोली होगी इस फिल्म के साथ, जो खुद मोबाइल्स के बढ़ते इस्तेमाल
के खिलाफ जंग छेड़े बैठी हो. वक़्त आ गया है कि अब इंडियन फिल्म इंडस्ट्री बायोपिक
के बाद साइंस-फिक्शन पर हाथ आजमाना बंद ही कर दे. ‘2.0’ में
फिक्शन तो बहुत है, लेकिन साइंस उतनी ही नदारद, जितनी त्रिपुरा
के युवा मुख्यमंत्री बिप्लब देब के बयानों से. [2/5]
No comments:
Post a Comment