दिहाड़ी में 3 रूपये रोज बढ़ाने की मांग
करने वाली दलित लड़कियों की बलात्कार के बाद हत्या होते हम पिछले हफ्ते ही ‘आर्टिकल
15’ में देख चुके हैं. जातिगत भेदभाव के बाद, इस हफ्ते बॉलीवुड के निशाने पर है शिक्षा
के क्षेत्र में आर्थिक रूप से पिछड़े होनहार छात्रों के साथ हो रही नाइंसाफ़ी. ऊंची
जात और नीची जात के बीच की खाई से कम गहरा नहीं है अमीर और गरीब के बीच का फ़र्क.
दोनों फ़िल्में अपना कथानक अखबारों की सुर्खियों और असल ज़िंदगी की घटनाओं से उधार
लेती हैं, पर एक बड़ा अंतर जो इन दोनों को लकीर के बिलकुल
आर-पार, आमने-सामने खड़ा कर देता है, वो है फ़िल्म बनाते वक़्त
कहानी और उसके कहे जाने के पीछे के मकसद के साथ बरती जाने वाली ईमानदारी. ‘आर्टिकल
15’ कहानी में कोई एक नायक खोजने या बनाने के फ़िज़ूल चक्करों में नहीं फंसती, जबकि ‘सुपर
30’ एक ख़ालिस दमदार नायक होने के बावज़ूद, कहानी में नायक
गढ़ने के लिए जबरदस्ती के ताने-बाने बुनने में अपनी सारी अक्ल खर्च कर देती है. ये
कुछ उतना ही बड़ा जुर्म है, जैसा राजकुमार हिरानी ‘संजू’ बनाते वक़्त कर बैठते हैं. ‘सुपर 30’ में ड्रामा है, एक्शन है, इमोशन है, गीत-संगीत भरपूर है, पर सब का सब बड़ी सफाई और सहूलियत से कहानी में ठूंसा हुआ. ठीक वैसे ही
जैसे फिल्म में हृतिक का किरदार अपनी गर्लफ्रेंड के चेहरे को ख़ूबसूरती के गणितीय-सूत्र
से मापता फिरता है.
आर्थिक स्तर पर तंगी से जूझता आनंद
कुमार (हृतिक रोशन) अप्रत्याशित तौर से मेधावी है. पैसों की कमी ने न सिर्फ
कैंब्रिज यूनिवर्सिटी जाने का सपना उससे छीन लिया है, उसके पिता (वीरेंद्र
सक्सेना) भी नहीं रहे. शिक्षा-माफिया लल्लन सिंह (आदित्य श्रीवास्तव) को आनंद साइकिल
पर पापड़ बेचता हुआ मिलता है. अब आनंद लल्लन सिंह के कोचिंग इंस्टिट्यूट का ‘प्रीमियम’ टीचर है. पैसों ने उसका हाल बदल दिया है, उसकी चाल
बदल दी है. जिदंगी के साइकिल की चेन उतर गयी थी, मगर वापस
चढ़ने में बहुत देर नहीं लगती. गुरु द्रोणाचार्य को राजाओं के बेटों को राजा बनाने
से बेहतर लगने लगा है, प्रतिभा से धनी-साधनों से हीन एकलव्यों
को उनकी शिक्षा का हक़ देना/दिलाना.
बिहार के मशहूर गणितज्ञ आनंद कुमार और
उनके मेधावी छात्रों पर बनी ‘सुपर 30’ के साथ सबसे बड़ी
विडम्बना ये है कि फिल्म जिस मुद्दे के खिलाफ़ पूरे जोश से नारे लगाती है, उसी चक्रव्यूह में खुद अन्दर तक फंसी नज़र आती है. ‘राजा का बेटा राजा
नहीं बनेगा, राजा वही बनेगा जो हक़दार होगा’ का परचम बुलंद करते हुए परदे पर ‘ग्रीक गॉड’ कहे जाने वाले हृतिक रोशन आनंद
कुमार कम, ब्रांडेड फेयरनेस क्रीम के विज्ञापन में अपनी रंगत के लिए लगातार शर्मिंदगी
झेलने वाले संभावित ग्राहक ज्यादा दिखते हैं. एक दृश्य में एक अमीर छात्र पूछ लेता
है, ‘सर, मैं अमीर हूँ तो इसमें मेरी
क्या गलती है?’. जवाब देने के लिये,
सामने फिर हृतिक ही खड़े मिलते हैं, फिल्म में अपने आप के ही अस्तित्व को खारिज़ करते
हुए. हालाँकि फिल्म में उनका अभिनय आप पर चढ़ते-चढ़ते चढ़ ही जाता है, पर कहीं न कहीं
उसके पीछे हृतिक के अभिनय कौशल से ज्यादा उनकी जी-तोड़ मेहनत और साफ़ नीयत हावी रहती
है.
आनंद कुमार हर साल 30 गरीब छात्रों को
आई.आई.टी. जैसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों की प्रवेश-परीक्षाओं के लिए तैयार
करते हैं. उनके रहने-खाने से लेकर पढ़ाई की दूसरी जरूरतों तक, सब मुफ़्त में
मुहैय्या कराते हैं, और अपने आम से दिखने वाले व्यक्तित्व और
अध्यापन में अपनी ख़ास ठेठ शैली के लिए सराहे जाते हैं. गणित के भारी-भरकम सूत्रों
को असल जिंदगी के आसान उदाहरणों से जोड़ कर पढ़ाई को मनोरंजक बनाने की उनकी पहल
फिल्म में दिखती तो है, पर उसका अंत कुछ इस नाटकीयता तक पहुँच जाता है, जो आपको
सच्चाई से कोसों परे लगती है और आप धीरे-धीरे फिल्म से कटने लगते हैं. बच्चे
हथियारबंद गुंडों का मुकाबला कर रहे हैं, गणित के सूत्रों का
इस्तेमाल करके. इस मुकाम पर आकर ‘गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर’ और ‘चिल्लर
पार्टी’ एक ही फ्रेम का हिस्सा हो जाते हैं. अंग्रेजी से
डरकर भागने वाले बच्चे बीच चौराहे पर टूटी-फूटी अंग्रेजी में गीत गा रहे हैं, ‘बसंती! डोंट डांस’, और देखते ही देखते पूरी की पूरी भीड़ उनके साथ उन्हीं
के राग में रम जाती है. फिल्म के लेखक-निर्देशक अब अपना दिमाग़ चलाने लगे हैं. उन्हें
शायद आनंद कुमार की शख्सियत और उनकी कहानी में दम दिखना बंद हो चुका है.
‘सुपर 30’ का
सबसे तगड़ा पहलू है, गरीब बच्चे-बच्चियों के किरदार में अभिनेताओं का सटीक चयन.
फिल्म में जितने भी पल आपको द्रवित कर पाते हैं (गिनती के ही सही, पर यकीनन फिल्म में ऐसे दृश्य हैं), सब के सब इन्हीं बच्चों के हिस्से.
आदित्य श्रीवास्तव और वीरेंद्र सक्सेना की सहज अदाकारी ही है, जो फिल्म के बैकड्राप
में बिहार को स्थापित कर पाती है वरना तो पंकज त्रिपाठी भी कुछ नया पेश करने की कोशिश
में असफल ही नज़र आते हैं. दो ख़ास दृश्यों में साधना सिंह और मृणाल ठाकुर बेहतरीन
हैं. एक दृश्य में साधना जी अपने आप को ‘हॉट’ कह कर शर्माती हैं, दूसरे में मृणाल ‘मर्दों में मेरी चॉइस हमेशा अच्छी रहती है’ कहकर मानव गोहिल को गुदगुदाती हैं.
आखिर में; ‘सुपर 30’ आनंद कुमार को सुपर-नायक बनाने की कोशिशों में गरीब बच्चों को लेकर उनके ईमानदार
प्रयासों और प्रयोगों को कमतर आंकने की भूल कर बैठती है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की
कहानी में फ़ार्मूला ढूँढने की भूख ने एक और फिल्म को बेहतर होने से काफी पहले रोक
लिया है. आनंद कुमार को जानने-सराहने के लिए उनके साथ एक घंटे का इंटरव्यू ही ज्यादा
माकूल होता. [2/5]
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