Friday 3 June 2016

तिथि [कन्नड़]: ...ये जो है ज़िन्दगी! [4.5/5]

जिन्दगी की कठोर, निर्मम, धीर-गंभीर सच्चाईयां जो हास्य उत्पन्न करती हैं, उनका कोई सानी नहीं. करीने से सजे-सजाये, चटख रंगों में रंगे-पुते, ठंडे-हवादार कमरों में बैठकर गढ़े गए चुटकुलों की शेल्फ़-लाइफ़ कुछ घंटों, कुछ दिनों से ज्यादा की कतई नहीं होती, पर असल जिन्दगी के दांव-पेंच कुछ अलग ही मिज़ाज के होते हैं. आपकी व्यथा, आपकी पीड़ा, आपका दुःख कब किसी दूसरे के लिए हास्य का सबब बन जाता है, आपको अंदाज़ा भी नहीं रहता. कुल मिला के 26 साल के हैं फ़िल्मकार राम रेड्डी, पर अपनी पहली ही कन्नड़ फिल्म ‘तिथि’ में जिस सफाई से ज़िन्दगी को उधेड़-उधेड़ कर आपके सामने फैलाते हैं और फिर उतनी ही बारीकी से उसे किरदारों के इर्द-गिर्द बुनते भी हैं, उसे देखकर अगर आप बड़े हैं तो हैरत और अगर बराबर उम्र के हैं तो जलन होना लाज़मी है.

कर्नाटक के दूर किसी एक छोटे से गाँव में, कच्चे रास्ते के उस पार बैठा एक बूढा आदमी [सिंगरी गौड़ा] आने-जाने वालों पर तीखी फब्तियां कस रहा है. बच्चे हंस रहे हैं. औरतें बिना कोई तवज्जो दिए आगे बढ़ जाती हैं. थोड़ी ही देर बाद गली के अगले मोड़ पर बूढ़ा आदमी लुढ़का हुआ मिलता है. शोर मच गया है, “सेंचुरी गौड़ा मर गए”. सेंचुरी नाम उन्हें सौ साल पूरे कर लेने पर मिला था. अंतिम-क्रिया के लिए जोह भेजा जा रहा है, पर बड़ा बेटा गडप्पा [चन्नेगौड़ा] निरा औघड़ है. एक नंबर का घुमक्कड़ और टाइगर ब्रांड लोकल व्हिस्की का पियक्कड़. 11 दिन बाद की ‘तिथि’ निकली है. आस-पास के गाँवों से कम से कम 500 लोगों को मांसाहारी भोज कराना होगा. सारे का सारा दारोमदार अब गडप्पा के बेटे तमना [थम्मेगौड़ा] के माथे है. जरूरी पैसों के लिए जमीन बेचना होगा, पर उस से पहले ज़मीन गडप्पा से अपने नाम लिखवानी पड़ेगी. गडप्पा माने तब ना?

फिल्म में बहुत कम मौके ऐसे आते हैं, जब आपको ‘तिथि’ के एक फिल्म होने का एहसास होता है, वरना तो लगता है जैसे आपको उठा कर कर्नाटक के उसी गाँव में रख दिया गया हो. रिश्तों में रस्साकशी हो, दुनियादारी का जंजाल हो, किरदारों का ठेठपन हो या फिर ज़िन्दगी जीने का पूरे का पूरा लहजा, फिल्म अपनी ईमानदारी से आपको भौंचक्का कर देती है. इतना वास्तविक, इतना कठोर होते हुए भी फिल्म आपको कभी भी उदासी के अंधेरों की ओर नहीं धकेलती, बल्कि एक हँसी की चमकार हमेशा आपके चेहरे पर बिखेरती रहती है. एक बानगी देखिये. चिता की आग ठंडी हो गयी है. राख में से अस्थियाँ खंगाली जा रही हैं. बातचीत सुनिए. “ये पसली है पसली...रख लो” “ये पैर की हड्डी है” “पैर? इतना छोटा??”.

राम रेड्डी की ‘तिथि’ कहानी कहने के लिए सांचे में कैद अभिनेताओं का सहारा नहीं लेती. फिल्म के सभी प्रमुख किरदार गाँव के आम लोग हैं, नॉन-एक्टर्स जिन्हें कैमरा की भाषा पढ़ने में भले ही दिक्कत आती हो, पर हर सीन को परदे पर जिंदा कर देने का हुनर खूब आता है. इनकी झिझक, इनका अनगढ़ रवैया ही फिल्म की जान बन जाता है. फिल्म कहीं कहीं बहुत क्रूर होने की भी कोशिश करती है, ख़ास कर उस एक दृश्य में जहां गडप्पा अपनी ज़िन्दगी की कहानी के कुछ पुराने पन्ने पलटने लगते हैं. हालाँकि फिल्म 2 घंटे 14 मिनट की अपनी पूरी अवधि में अक्सर छोटे-छोटे पलों में जीती और कुछ बहुत ही खूबसूरत चित्रों में सिमटती दिखाई देती है, पर अंततः इसके रसीले, मीठे, थोड़े मतलबी पर सच्चे किरदार ही है जो इसे एक जिंदा फिल्म बनाये रखने में कामयाब होते हैं.

तिथि’ देखना, न देखना सिर्फ इसी एक एहसास से जुड़ा है कि आप कितनी बेसब्री, कितनी चाहत से अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहते हैं. मोटरसाइकिल पर तीन पहले से ही विराजमान है, पर चौथे के हाथ दे देने पर जगह बन ही जाती है. अब इतने थोक में ईमानदारी कहाँ मिलती है आजकल की बड़ी-बड़ी फिल्मों में? [4.5/5]        

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