Friday, 10 June 2016

तीन: कहानी रिटर्न्स! [3/5]


फिल्मों के नाम इन दिनों काफी चर्चा में हैं. तो शुरुआत नाम से ही करते हैं. रिभु दासगुप्ता की ‘तीन’ का नाम ‘तीन’ ही क्यूँ रखा गया, ‘कहानी-2’ क्यूँ नहीं; फिल्म देखने के बाद भी मेरी समझ से परे है. कहीं ‘तीन’ सुजॉय घोष की ‘कहानी’ श्रृंखला की वो तीसरी पेशकश तो नहीं, जो ‘कहानी-2’ से पहले आ गयी? खैर, नाम के पीछे का रहस्य जो भी हो, एक बात तो तय है कोरियाई क्राइम थ्रिलर ‘मोंटाज़’ की ऑफिशिअल रीमेक ‘तीन’ पर सुजॉय घोष की ‘कहानी’ का असर साफ़-साफ़, सुन्दर-सुन्दर और सही मायनों में दिखता है. सुजॉय फिल्म के निर्माताओं में सबसे प्रमुख हैं तो ये गैर-इरादतन, नाजायज़ या हैरतंगेज़ भी नहीं लगता. बहरहाल, ‘तीन’ एक बहुत ही करीने से बनाई गयी थोड़ी अलग किस्म की थ्रिलर है, जो आपको हर पल नए-नए रहस्यमयी खुलासों की बौछार से असहज भले ही महसूस न कराये, एक जानलेवा ठहराव के साथ आपको अंत तक कुरेदती ज़रूर रहती है.

जॉन बिश्वास [अमिताभ बच्चन] पिछले आठ साल से पुलिस स्टेशन के चक्कर लगा रहे हैं. किडनैपिंग के बाद उनकी नातिन की मौत एक एक्सीडेंट में हो गयी थी, जिसके बाद अब तक किडनैपर का कोई सुराग पुलिस के हाथ नहीं लगा है. केस लगभग बंद हो चुका है. उस वक़्त के इंस्पेक्टर मार्टिन दास [नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी] नाकामी का बोझ सीने पर लिये अब चर्च में फ़ादर बनकर सुकून तलाश रहे हैं. नई पुलिस ऑफिसर सरिता सरकार [विद्या बालन] को भी जॉन से पूरी हमदर्दी है पर कहीं से कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती. ऐसे में एक दिन, एक और बच्चे की किडनैपिंग का मामला सामने आता है. सब कुछ दोबारा ठीक वैसे ही घट रहा है जैसे आठ साल पहले जॉन के साथ हुआ था.

घटनाओं का पहले तो बड़ी बेदर्दी से इधर-उधर घाल-मेल कर देना और फिर धीरे-धीरे उन्हें उनके क्रम में पिरोकर आईने जैसी एक साफ़ तस्वीर सामने रख देना, किसी भी थ्रिलर के लिए ये सबसे अहम् चुनौती होती है. रिभु दासगुप्ता इन दोनों पहलुओं को बराबर तवज्जो देने में थोड़े ढीले नज़र आते हैं. जहां फिल्म के दूसरे भाग में रिभु बेतरतीब सिरों को जोड़ने में जल्दबाजी दिखाने लगते हैं, वहीँ पहले भाग में किरदारों के भीतर के सूनेपन, खालीपन और उदासी में सोख लेने वाली धीमी गति आपको परेशान भी करती रहती है. हालाँकि कोलकाता शहर के किरदार की रंगीनियत को बखूबी स्क्रीन पर उतार देने में रिभु कहीं कमज़ोर नहीं पड़ते. सरकारी दफ़्तरों में धूल चाटती फाइलों के अम्बार के बीच बैठे रूखे चेहरे हों या घरों-दीवारों पर लटकती बाबा आदम के ज़माने की तस्वीरें और तश्तरियां; फिल्म का आर्ट डायरेक्शन काबिल-ए-तारीफ है.

अमिताभ बच्चन जिस कद के अभिनेता हैं, उन्हें अब कुछ भी साबित करने की जरूरत नहीं है. सिनेमा और अभिनय के प्रति उनकी ललक भी बढ़ती उम्र के साथ बढ़ती ही रही है, पर ‘तीन’ में उनका अभिनय कोई नई ऊँचाईयाँ हासिल नहीं करता, बल्कि एकरसता ही दिखाई देती है. हाँ, उन्हें अपनी ही उम्र को परदे पर जीते देखना कोई कम अनुभव नहीं है. नवाज़ुद्दीन अच्छे हैं, पर उनके किरदार में थोड़ी उलझन है. कहीं वो फिल्म में हंसी की कमी पूरी करने में लगा दिए जाते हैं (चर्च वाले दृश्यों में खासकर) तो कहीं एक बड़े संजीदा पुलिस वाले की भूमिका जीने में मशगूल हो जाते हैं. विद्या बालन और सब्यसाची चक्रबर्ती छोटी भूमिकाओं में भी स्क्रीन पर चमक बिखेरने में कामयाब रहते हैं.

कोरियाई फिल्म ‘मोंटाज़’ अगर आपने देखी हो, तो ‘तीन’ दूसरे रीमेक की तरह बेशर्मी से दृश्यों की नक़ल करने की होड़ नहीं दिखाती, बल्कि एक बेहतरीन आर्ट डायरेक्शन और सधे हुए अभिनय के साथ आपको कुछ अलग परोसने की कोशिश करती है. ‘मोंटाज़’ में जहां क्राइम और उससे जुड़े घटनाक्रम को रोमांचक बना कर पेश किया गया है, ‘तीन’ किरदारों के भीतर और बाहर दोनों की दुनिया को तसल्ली से देखने और दिखाने में अपना वक़्त ज्यादा लगाती है. हर कहानी ‘कहानी’ नहीं हो सकती, पर इसमें बहुत कुछ है जो आपको ‘कहानी’ की याद दिलाता रहेगा...और अच्छी यादें किसे पसंद नहीं? [3/5]                

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