‘कॉमेडी’ कोमा में चली गयी है. अब उसका
हॉस्पिटल के बिस्तर से उठना और आपको जी भर के गुदगुदाना न जाने कब होगा? बॉलीवुड
की ज़बान में कहें तो, “अब दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है”. हँसी के नाम पर रंग, लिंग
और नस्ल-भेद को कोंचती टीका-टिप्पणी के बाद, इस बार ‘कॉमेडी’ को शारीरिक अपंगता पर
गढ़े गए भौंडे और भद्दे प्रहार झेलने पड़े हैं. घाव गहरे हैं, पर ऐसा नहीं कि सिर्फ ‘कॉमेडी’
को ही मिले हैं. फ़रहाद-साज़िद की ‘हाउसफुल 3’ आपकी सोच, समझ और
संवेदनाओं का भी बड़ी बेशर्मी से मज़ाक उड़ाती है, वरना कौन भलामानस होगा जिसे व्हील
चेयर पर बैठे ‘दिव्यांग’ की सच्चाई का पता लगाने के लिए उसकी पैंट में चीटियाँ
छोड़े जाने पर हँसी आती हो? शादी न हो इसके लिए बेटियों के पेट से थैली (ovary)
निकलवा देने के सुझाव के बाद ‘आय एम जोकिंग’ बोल भर देने से क्या सब सिर्फ मज़ाक की
हद तक ही रह जाता है?
लन्दन में कहीं एक बहुत पैसे वाला बाप
है बटुक पटेल [बोमन ईरानी] जिनका मानना है, “आदमी को सीधा होना
चाहिए, उल्टा तो तारक मेहता का चश्मा भी है”. उसकी तीनों बेटियाँ [जैकलीन फर्नान्डीज़,
नरगिस फाखरी, लीज़ा हेडन] भी कम नहीं. एक कहती है, “पापा,
मैं बच्चा नहीं कर रही.” आपको लग रहा होगा, लड़की प्रेगनेंसी के खिलाफ है? जी नहीं,
उसका मतलब है, “आय एम नॉट किडिंग”. बिहार बोर्ड की टॉपर रूबी राय का विडियो खासा
वायरल हुआ है आजकल. फिल्म की पृष्ठभूमि लन्दन न होकर बिहार होती तो ये तीनों बड़ी
आसानी से खप जातीं. बहरहाल, तीनों के बॉयफ्रेंड्स भी हैं [अक्षय कुमार,
अभिषेक बच्चन, रितेश देशमुख] जो लड़कियों से कम, उनकी
दौलत से ज्यादा प्यार करते हैं. हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि तीनों को अँधा, गूंगा
और अपाहिज़ बनने का नाटक करना पड़ता है. और फिर जो एक बार नाटक शुरू होता है, वो
नाटक कम आपके दिल-ओ-दिमाग के साथ खिलवाड़ ज्यादा लगता है.
विकलांगों के प्रति बॉलीवुड पहले भी इस
तरह की असंवेदनशीलता दिखा चुका है. दीपक तिजोरी की ‘टॉम, डिक एंड
हैरी’ और इंदर कुमार की ‘प्यारे मोहन’ भूलने लायक ही फिल्में
थीं. पर ‘हाउसफुल 3’ में फ़रहाद-साजिद सारी हदें लांघ जाते हैं. सस्ते मज़ाक के लिए घिसे-पिटे जोक्स
का पूरा बोरा उड़ेल दिया है दोनों ने. हर किरदार जैसे कॉमनसेंस की स्पेल्लिंग भूल
कर उल-जलूल हरकतें करने में लगा रहता है. अक्षय का किरदार स्प्लिट पर्सनालिटी
डिसऑर्डर का शिकार है. ‘इंडियन’ शब्द सुनते ही उसके भीतर से एक और किरदार बाहर आने
लगता है, पहले वाले से ज्यादा खूंखार. देश का जैसा माहौल है, ये एकदम फिट बैठता
है. ‘भारत माता’ ‘गाय’ या ‘लता मंगेशकर और सचिन’ सुनते ही अकसर देश के लोगों में
इस तरह के बदलाव आजकल खूब देखे जा रहे हैं. रितेश का किरदार शब्दों के चयन में
हमेशा मात खा जाता है. ‘विरोध’ की जगह ‘निरोध’, ‘वाइफ’ की जगह ‘तवायफ़’, ‘खिलाड़ी’
की जगह ‘कबाड़ी’; इसलिए कोई हैरत नहीं अगर उसकी ‘कॉमेडी’ आपको ‘ट्रेजेडी’ लगे तो.
अभिषेक का किरदार ‘बच्चन-परिवार’ के इर्द-गिर्द ही घूमता है. कभी बड़े बच्चन साब के
पुतले के साथ सेल्फी, तो कभी बहू बच्चन [ऐश्वर्या] के पुतले के साथ रोमान्स!
फिल्म में अगर कुछ भी झेल जाने लायक है,
तो वो है अक्षय का सब पर हावी हो जाने का अंदाज़. स्क्रिप्ट से बढ़कर सीन में कुछ न
कुछ करते रहने का दुस्साहस ही उन्हें इस तरह की फिल्मों में कामयाब बनाता है. और
दूसरा, फिल्म का ‘फ़ेक इश्क़’ गाना जिसमें तीनों नायकों को पैसे के पीछे भागना खलने लगता
है और सच्चे प्यार का इमोशन हलके-हलके छू रहा होता है. एक यही वक़्त है फिल्म में जब
हँसी हलकी-फुलकी ही सही, साफ़-सुथरी, उजली-उजली दिखती है. अंत में, अगर जैकलीन के
किरदार के अंदाज़ में कहूं तो, “फ़रहाद-साजिद, जल्दी कुएं में जाओ (गेट वेल सून)!” और आप के लिए, “ठंडी दवाई
लो (टेक अ चिल पिल)!...नहीं तो सरदर्द की गोली तो लेनी ही पड़ेगी! [1/5]
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