गुलज़ार साब की ‘माचिस’ जैसी कुछेक
को अलग रख कर देखें तो पंजाब को हिंदी फिल्मों ने हमेशा मीठी चाशनी में ही लपेट कर
परोसा है. मुंबई का कैमरा जब भी अमृतसर, भटिंडे या पटियाले में लेंस से कैप हटाता
है, हरे-पीले सरसों के खेतों में लाल-नीली चुन्नियाँ लहराती मुटियारें रोटी लेकर दौड़
लगा रही होती हैं. दिन में बैसाखी के मेले और रात में लोहड़ी का जश्न, इससे आगे बढ़ने
की हिम्मत पंजाबी सिनेमा ने तो कभी-कभी दिखाई भी है पर बॉलीवुड कमोबेश बचता ही रहा
है. अब तक. ‘उड़ता पंजाब’ के आने तक. पंजाब की जो सपनीली तस्वीर आपने
‘यशराज फिल्म्स’ के चश्मे से देखी थी और आज तक अपने जेहन में बसाये घूम रहे थे, अभिषेक
चौबे की ‘उड़ता पंजाब’ पहले फ्रेम से ही उस तस्वीर पे चिपके ‘एनआरआई
कम्पेटिबल’ चमक को खरोंचने में लग जाती है. सीने पर आतंकवाद का बोझ और पीठ पर ’84 के
ज़ख्म उठाये पंजाब को अब हेरोइन, स्मैक और कोकीन की परतों ने ढक लिया है. खुरदुरी,
किरकिराती, पपड़ी जमी परतों ने!
सरसों के खेतों की जगह अब फिल्म बेरंग
सफेदे [यूकेलिप्टस] के पेड़ों से शुरू होती है, वो भी रात के अँधेरे में. बॉर्डर पार से पाकिस्तान
की जर्सी पहने एक खिलाड़ी हेरोइन का एक पैकेट ऐसे फ़ेंक रहा है, जैसे ओलिंपिक में
मेडल जीत लेने का ये उसका आख़िरी चांस हो. नेताओं और पुलिस की मिली-भगत से चल रहे ड्रग्स
के इस काले कारोबार का शिकार सब हैं, स्कूल-कॉलेज जाने वाले लड़कों से लेकर उनके
पसंदीदा रॉकस्टार टॉमी सिंह [शाहिद कपूर] तक. अपनी मर्ज़ी और
खुदगर्जी भरे गानों में गालियाँ बकने वाला ये रॉकस्टार हमेशा नशे में धुत्त, सनकी
और गुस्सैल किस्म का आम नशेड़ी है, जिसका अपने ऊपर कोई जोर नहीं. सरताज सिंह [दिलजीत
दोसंझ] एक आम पुलिसवाला है जिसे सच्चाई मानने में कोई ख़ास तकलीफ़ नहीं है तब
तक, जब तक उसका छोटा भाई खुद नशे में गिरफ्त में नहीं आ जाता. डॉ. प्रीत [करीना
कपूर खान] के साथ मिलकर अब सरताज इस पूरे रैकेट की जड़ तक पहुंचना
चाहता है. इन सब के बीच एक बिहारन [आलिया भट्ट] भी हर पल पिस रही
है. अच्छी ज़िन्दगी की तलाश ने उसे इस गर्त में ला फेंका है, अब जाने कब और कैसे इस
कैद से उसकी रिहाई मुमकिन होगी?
फिल्म शुरू ही हुई है, जब थाने की कोठरी में बंद टॉमी अपने रसूख की धौंस
में हो-हल्ला मचा रहा है और अपने छोटे भाई की हालत से हिला हुआ सरताज बाहर बैठा नशे
को कोस रहा है. थोड़ी ही देर में आप देखते हैं, सरताज टॉमी की थप्पड़ों और घूंसों से
जम कर धुलाई कर रहा है. ये बॉलीवुड के लिए नया है. इस एक वाकये से अभिषेक चौबे तय कर
देते हैं कि फिल्म किरदारों को तवज्जो देती है न कि उन्हें निभाने वाले अभिनेताओं
के कद को. वरना ये वही बॉलीवुड है जो परदे पर किस बड़े स्टार का नाम पहले आएगा, जैसे
फ़िज़ूल के हाय-तौब्बा से निर्माताओं की जान सुखा देता था. ‘उड़ता पंजाब’ जमीनी
हकीकत को इतनी बेरूखी और बेदर्दी से आपके सामने रखती है कि इसके कुछ दृश्य
आपको फिल्म ख़त्म होने के काफी बाद तक परेशान करते रहते हैं. ‘एनएच 10’
के आख़िरी सीन में अनुष्का का किरदार किस बेखौफ़ियत से सिगरेट जलाती है और फिर लोहे की
सरिया जमीन पर खरोंचते हुए विलेन की ओर बढती है. आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. ‘उड़ता
पंजाब’ उसी धारदार कलम [सुदीप शर्मा] से निकली है.
अभिनय में शाहिद अपने ‘कमीने’ वाले पागलपन में पूरे जोश-ओ-खरोश से
वापस लौट आये हैं. ठहराव में तो अभी भी गुंजाईश बहुत है पर जिस उतावलेपन और बेचैनी
से वो ड्रग एडिक्ट की भूमिका निभाते हैं, कहीं कहीं अपने पिता पंकज कपूर जी की झलक
छोड़ जाते हैं. करीना ठीक ही लगती हैं. दिलजीत वाकई में दिल जीत लेते हैं. एक ख़ास
किस्म की सादगी तो है ही उनमें, अभिनय में भी कहीं कोई कमी नहीं दिखती. देखना होगा
कि बॉलीवुड उन्हें आगे किस तरह ट्रीट करता है. और अब बात आलिया की. आलिया फिल्म की
सबसे मजबूत कड़ी हैं. उनकी बिहारी बोली में थोड़ी घालमेल जरूरी दिखती है, पर जिस दर्द
को वो बिना बोले फिल्म में जीते नज़र आती हैं, वो आलिया को आज के दौर के नामचीन
अभिनेताओं की श्रेणी में ला खड़ा करने के लिए काफी है.
अंत में, ‘उड़ता पंजाब’ आसान फिल्म नहीं है और एकदम से
परफेक्ट भी नहीं. पर फिल्म में कुछ ऐसा भी नहीं, जो नहीं कहा जाना चाहिए या जिसे
बेहतर तरीके से कहा जा सकता था. गालियों की थोड़ी अति ज़रूर है पर उनसे कहीं ज्यादा
चुभती है सच्चाई. फिल्म के एक हिस्से में टॉमी अपने चाहनेवालों के सामने स्टेज में
बेबाकी से कह जाता है, “मुझे सिर्फ ड्रग्स पता था. अपने गाने में मैंने वही डाल
दिया. मुझसे गये-गुजरे तुम लोग हो, जिन्होंने उसमें फिलोसोफी ढूंढ ली और मुझ 22
साल के लौंडे को रॉकस्टार बना दिया”. ‘उड़ता पंजाब’ देखने से
ज्यादा, सोचने की फिल्म है! देखिये, सोचिये और प्लीज शुतुरमुर्ग मत बने रहिये. [4/5]
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