80 के दशक का पंजाब दहशत
और अविश्वास के माहौल में दबी-दबी सांसें ले रहा है. पुलिसिया बूट पर पॉलिश चढ़ रही
है. सरकारी वर्दी गेंहू और गन्ने के खेतों में उग्रवादी खोज रही है. दोनाली बंदूकों
की बटों ने बेक़सूर पीठों पर अपने नीले निशान छोड़ने सीख लिए हैं. अपने ही कौम के काले
चेहरों से रात और भी भयावह लगने लगी है. कौन किसपे ऐतबार करे? कौन अपनी हद में है,
और कौन शक की ज़द में? किसे पता. गुरविंदर सिंह की पंजाबी फिल्म ‘चौथी
कूट’ कहानी कह भर देने की जल्दबाजी नहीं दिखाती, बल्कि कहानी जीने का आपको पूरा-पूरा
वक़्त और मौका देती है. आतंक यहाँ सुनसान गलियों के सन्नाटे में पलता है, डरे हुए चेहरों
पे चढ़ता है और धीरे, बहुत धीरे, सहमे-सहमे क़दमों से आप तक पहुँचता है. ये एक अलग भाषा
है. सिनेमा में एक अलग तरीके की भाषा, जो ठहराव से हलचल पैदा करना चाहती है, और इस
बेजोड़ कोशिश में बखूबी कामयाब भी होती है.
पंजाबी के बड़े कहानीकार वरयाम
सिंह संधू की कहानियों पर पैर जमाये, गुरविंदर सिंह की
‘चौथी कूट’ शुरू होती है फ़िरोजपुर छावनी रेलवे स्टेशन से. पुलिस की गश्त
चप्पे-चप्पे पर है. चंडीगढ़ से अमृतसर लौट रहे दो हिन्दू सहयात्रियों की ट्रेन छूट गयी
है. एक ट्रेन आई तो है पर उसे अमृतसर तक खाली ले जाने का आदेश है. इसी बीच एक सरदारजी
भी उन दोनों की जरूरत में साझा करने आ गए हैं. तय हुआ कि गार्ड के डिब्बे में बैठकर
जाया जा सकता है. गार्ड की आनाकानी के बावजूद, तीनों अब जबरदस्ती ट्रेन पर सवार हैं.
डब्बे में पहले से और भी यात्री मौजूद हैं. सबके चेहरे सपाट हैं, सुन्न हैं, शून्य
हैं. सब एक-दूसरे को पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं. ‘नहीं जानने’ और ‘जान लेने’ के बीच
अविश्वास की एक लम्बी-चौड़ी खाई है. ये डब्बा ‘डर’ का डब्बा है. इससे निकलने के बाद
ही इससे ‘निकलना’ मुमकिन हो शायद!
इसी पंजाब के किसी दूसरे
हिस्से में, कुछ सहमे कदम रास्ता भूल गए हैं. रात गहरी है. गाँव की लड़की पति और बच्ची
के साथ घर आ रही है. सामने के खेतों में एक घर तो है. मदद माँगने का जोखिम लें? संशय
और खौफ का दबदबा यहाँ भी काबिज़ है. दरवाजे के बाहर भी, दरवाजे के अन्दर भी. घर में
एक कुत्ता है. अपनी कौम के लिए लड़ने वालों ने पहले ही चेताया है, कुत्ते को मारो या
दूर छोड़ आओ. रातों में इसका भौंकना मुखबिरी से कम नहीं. रात को अपनी ‘कौम’ वाले तो
दिन में बूट ठोकते जवान, पंजाब के लिए तय करना मुश्किल हो रहा है कि कौन कम वहशी है,
कौन ज्यादा?
पिछले साल मुंबई फिल्म फेस्टिवल
(MAMI) में कोलंबियन फिल्म ‘लैंड एंड शेड’ देखी थी. कैमरा और साउंड जिस ख़ूबसूरती
से उस फिल्म के परिदृश्य में रची-बसी खुशबू, गीलापन और किरकिराहट आप तक छोड़ जाते हैं,
‘चौथी कूट’ उसी प्रयोग की एक बार और याद दिला देती है. काले बादलों घिर
रहे हैं, तेज़ हवा फसलों को झकझोर रही है. खेत के बगल से गुजरने वाले रस्ते पर धूल
का एक मनचला गुबार लोटते-पोटते कैमरे की ओर बढ़ रहा है. बारिश की बौछार आपके चेहरे तक
पहुंच रही है. बारिश के बाद भी, शीशे जैसी साफ़ बूँदें पत्तों के किनारे पकड़ कर अभी
भी लटकी हुई हैं. सत्या राय नागपाल कुछ तो ऐसे अप्रतिम दृश्य
बनाते हैं, जिन्हें आपने परदे पर पहले कभी इतनी चाव से जिया नहीं होगा. हालाँकि कुछ
एक बार उनके प्रयोग आपको चौंकाने में नाकामयाब रहते हैं, जैसे एक दृश्य में कैमरा अचानक
जमीन चाटने लगता है तो आपको यह जानने में कोई बहुत दिक्कत नहीं होती कि अब किरदार गिरने
वाला है.
आखिर में; ‘चौथी कूट’
आपको किसी तय मुकाम तक लेकर जाने का दावा पेश नहीं करती, बल्कि बड़ी सफाई से आपको उसी
रास्ते पर छोड़ देती है, जहां से आपके लिए मंजिल तक पहुंचना मुश्किल नहीं रह जाता.
बहुत कम फिल्में होती हैं, जिनकी जबान कम बोलते हुए भी बहुत कुछ कह जाती है. बहुत कम
फिल्में मिलती हैं, जिनकी जबान में एक नया स्वाद होता है. ‘चौथी कूट’ उसी कड़ी में बड़ी
मजबूती से खड़ी मिलती है. [4/5]
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