Friday, 12 August 2016

रुस्तम: सुस्तम, सुस्तम!! [1.5/5]

बॉलीवुड को कुछ चीजों में खासा मज़ा आता है. सच्ची घटनाओं को उठाओ, उनके जुड़े जमीनी किरदारों को कार्टून की तरह लम्बे, चौड़े, भद्दे बना दो, और फिर उन्हें इस शान से परोसो जैसे आपने कितना बड़ा एहसान किया हो हिंदी सिनेमा और देश के दर्शकों पर. 1959 के मशहूर और ऐतिहासिक नानावटी केस पर आधारित, टीनू सुरेश देसाई की ‘रुस्तम’ एक ऐसी ही बेशरम और ढीठ फिल्म है, जिसकी हिम्मत पर आपको सिर्फ गुस्सा और झुंझलाहट आती है, खासकर तब जब आप जानते हैं कि इसके निर्माताओं ने ‘ वेडनेसडे’, ‘स्पेशल छब्बीस’ और ‘बेबी’ जैसी समझदार फिल्मों से बॉलीवुड का एक नया चेहरा गढ़ा है. ‘रुस्तम’ न सिर्फ नानावटी केस की अहमियत और संजीदगी का मज़ाक बनाती है, बल्कि हिंदी सिनेमा में अब तक का सबसे वाहियात ‘कोर्टरूम’ ड्रामा दिखाने का सौभाग्य भी हासिल करती है.

फिल्मों में देशभक्ति का नया ‘पोस्टर-बॉय’ बनते जा रहे अक्षय कुमार यहाँ भारतीय नौसेना के कमांडर बने हैं, कमांडर रुस्तम पावरी, जिनकी एंट्री तिरंगे के सामने सफ़ेद यूनिफार्म में कदमताल करते हुए होती है. बीवी सिंथिया [इलियाना डी’क्रूज़] का अवैध सम्बन्ध अमीर दिलफेंक विक्रम मखीजा [अर्जन बाजवा] के साथ है. पता चलते ही, रुस्तम विक्रम के सीने में 3 गोलियों उतार कर उसकी हत्या कर देता है, और फिर खुद पुलिस स्टेशन में जाकर सरेंडर. आपकी जानकारी के लिए बता दूं, मुंबई का नानावटी केस भारतीय न्याय व्यवस्था का वो मशहूर मामला है, जिसमें फैसले तक पहुँचने के लिए आख़िरी बार ज्यूरी का इस्तेमाल हुआ था. एक ऐसा सनसनीखेज मामला, जब पूरी पब्लिक एक खूनी की रिहाई के लिए सड़कों पर उतर आई थी. असली मामले में भले ही सारा फोकस इस बात पे रहा हो कि खून तैश में आकर किया गया था, या ठंडे दिमाग से सोचकर; यहाँ फिल्म अक्षय कुमार के स्टारडम को ही सजाने-संजोने में लगी रहती है. फिल्म में देशभक्ति का तड़का भी इसी इमेज को और चमकाने की एक सस्ती कोशिश है.

90 के दशक की फिल्मों में अक्सर आपने नायक को कोर्ट में लकड़ी के कठघरे को उखाड़ कर विरोधी पक्ष के वकील या गवाहों की तरफ दौड़ते देखा होगा (अक्षय खुद भी ऐसी फिल्मों का हिस्सा रहे हैं). राहत की बात है यहाँ ऐसा कुछ नहीं होता, पर यहाँ जो होता है वो भी कुछ कम नहीं. दलीलों के नाम पर बचकानी जिरहें, हँसी के लिए ओछे मज़ाक, कोर्ट में मौजूद पब्लिक की बेमौसम तालियों और ’एक रुका हुआ फैसला’ की तर्ज़ पर ज्यूरी की अधपकी कशमकश; ‘रुस्तम’ हर तरफ अपने दिमागी दिवालियेपन की नुमाईश करती नज़र आती है.

परदे पर खूबसूरत फ्रेम को पेटिंग्स कहकर आपने कई फिल्मों के आर्ट डायरेक्शन और कैमरावर्क की दिल खोल कर सराहना की होगी. इस फिल्म में भी इस तरह के तारीफ़ की पूरी गुंजाइश है, अगर आपको अपने 5 साल के बच्चे की ‘माइक्रोसॉफ्ट पेंट’ में की गई हरकतें भी पेंटिंग लग्रती हों तो. इतने सारे चटख रंगों को एक साथ इससे पहले शायद मैंने ‘एशियन पेंट्स’ के शेड कार्ड में ही देखे होंगे. फिल्म का कानफाडू बैकग्राउंड स्कोर जज साहब के हथोड़े की तरह सर पे बजता ही रहता है. और उसपे, एक्टिंग में परफॉरमेंस का अकाल. कोई न कोई इंडस्ट्री में है, जो ‘सीरियस एक्टिंग’ का मतलब कैमरे के सामने सीरियस रहना समझता है और दूसरों को समझाता भी है. वैसे ‘रुस्तम’ में कुमुद मिश्रा साब एकलौते ऐसे कलाकार हैं, जिनकी एक्टिंग के रंग फिल्म के दूसरे कलाकारों से कहीं ज्यादा और बेहतर तरीके से खिल के और खुल के सामने आते हैं. पवन मल्होत्रा और कंवलजीत सिंह उनके बाद आते हैं.

अंत में; ‘रुस्तम’ एक बहुत ही थकी हुई फिल्म है, जो सिर्फ अक्षय कुमार की उस एक छवि का भरपूर फायदा उठाने के लिए बनाई गयी है, जिसमें वो अपने सस्ती, बेसिर-पैर की कॉमेडी से अलग कुछ संजीदा देने का दम भरते हैं. नायक कहानी में बड़ा हो, चलेगा! कहानी से बड़ा हो जाए? ये खतरनाक संकेत हैं. आखिर, एक और सलमान किसे चाहिए? [1.5/5]        

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