हैप्पी करोड़ो में एक
लड़की है. फिल्म में अली फज़ल का किरदार हैप्पी के किरदार को बयान
करते हुए वैसी ही शिद्दत दिखाता है, जिस शिद्दत से शायद फिल्म के निर्देशक मुदस्सर
अज़ीज़ ने फिल्म के निर्माताओं के सामने हैप्पी का किरदार बढ़ा-चढ़ा के पेश
किया होगा. पर सच तो ये है कि हैप्पी जैसी नायिकायें बॉलीवुड की पसंदीदा हमेशा से
रही हैं. स्वभाव से दबंग, जबान से मुंहफट, दिल से साफ़, कद-काठी से बेहद खूबसूरत! अब
सारा दारोमदार सिर्फ इस एक बात पर आकर टिक जाता है कि उसे गढ़ने में कितनी अच्छी और
कितनी ‘वाटरटाइट’ स्क्रिप्ट का इस्तेमाल होता है. सब कुछ सही रहा तो वो ‘तनु
वेड्स मनु’ की तनु भी बन सकती है, वरना थोड़ी सी भी झोल-झाल उसे वैसी ही ‘हैप्पी’
बना के छोड़ेगा, जैसी हम हर दूसरी-तीसरी रोमांटिक कॉमेडी फिल्मों में देखते सुनते
आये हैं. हालाँकि फिल्म के साथ आनंद एल राय [निर्देशक, तनु वेड्स मनु और
राँझणा] और हिमांशु शर्मा [संवाद लेखक, तनु वेड्स मनु और
राँझणा] जैसे बेहतरीन नाम जुड़े है, पर ‘हैप्पी भाग जायेगी’ हैप्पी को ‘तनु’
बनने का मौका नहीं देती.
हैप्पी [डायना पेंटी]
एक तेज-तर्रार लड़की है. उसके पैर कहीं रुकते नहीं. बाप की पसंद के लड़के बग्गा [जिम्मी
शेरगिल] से शादी न करनी पड़े, इसलिए शादी के दिन ही घर से भाग जाती है. हालात
कुछ ऐसे बनते हैं कि वो अपने बॉयफ्रेंड गुड्डू [अली फज़ल] के पास न
पहुँच कर अमृतसर से लाहौर पहुँच जाती है. लाहौर में उसकी मदद करने को तैयार बैठे
हैं पाकिस्तानी सियासत के मुस्तकबिल बिलाल अहमद [अभय देओल]. बिलाल अपने
वालिद की सियासी ख्वाहिशों को चुपचाप ख़ामोशी से पूरा करने में लगा है, जबकि उसकी अपनी
मर्ज़ी कभी क्रिकेट के मैदान में झंडे गाड़ने की थी. कहने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए कि
हैप्पी से मिलकर उसे अपनी खोई शख्सियत हैप्पी में दिखने लगती है. बहरहाल, घटनायें
और फिल्म के लेखक-निर्देशक खींच-खांच के सारे ख़ास किरदारों को प्रियदर्शन की
फिल्मों की तरह, उनके तमाम सह-कलाकारों के साथ हिन्दुस्तान से पाकिस्तान में ला
पटकते हैं. शायद इसलिए भी कि स्क्रीन पर पाकिस्तान का ‘सब चलता है’ हिंदुस्तान
के ‘सब चलता है’ से ज्यादा मजाकिया लगता हो.
फिल्म के मजेदार किरदार
हों, उनके रसीले संवाद या फिर काफी हद तक कहानी में जिस तरह के हालातों का बनना और
बुना जाना, ‘हैप्पी भाग जायेगी’ वास्तव में ‘तनु वेड्स मनु’
बनने की राह पर ही भागती नज़र आती है. फर्क
सिर्फ इतना है कि इस बार उन किरदारों में आपको बनावटीपन और घटनाओं में बेवजह की भागा-दौड़ी
ज्यादा शामिल दिखाई देती है. हैप्पी लाहौर से वापस अमृतसर क्यूँ नहीं आना चाहती? हैप्पी
अगर इतनी ही निडर और निर्भीक है कि पूरा लाहौर उससे परेशान हो जाए, वहाँ की पुलिस,
वहाँ के गुंडे सब उसके सामने घुटने टेक दें तो उसे अपने बाप के सामने शादी की
मुखालफत करने में क्या दिक्कत हो जाती है? कहानी की घिसी-पिटी सूरत यहाँ किरदारों
की भली सी-भोली सी सीरत पर बुरी तरह हावी हो जाती है. नतीज़ा? फिल्म कुल मिलाकर एक
औसत दर्जे की कोशिश भर दिखाई देती है.
जिम्मी शेरगिल यहाँ भी नाकाम
प्रेमी की भूमिका को जीते नज़र आते हैं, जिसे फिल्म के अंत में ‘पति’ बनने का सुख नहीं
मिलता, पर दर्शकों की ‘सिम्पैथी’ मिलने का हौसला ज़रूर दिया जाता है. फिल्म
के असरदार पलों में पाकिस्तान पर गढ़े गए सीधे-सादे, साफ़-सुथरे जोक्स आपके चेहरे पे
हर बार मुस्कान लाने में कामयाब रहते हैं. पीयूष मिश्रा साब का औघड़पन,
उनकी अहमकाना हरकतें और खालिस उर्दू के इस्तेमाल से बनने वाला हास्य आपको थोड़ी तो
राहत देते हैं. अली फज़ल और अभय देओल अपनी करिश्माई मौजूदगी
भर से परदे को एक हद तक जिंदा रखते हैं. डायना काबिले-तारीफ हैं. जिस तरह की झिझक और झंझट उनके
अभिनय में एक वक़्त दिखाई देता था, उससे वो काफी दूर निकल आई हैं.
आखिर में; मुदस्सर अज़ीज़
की ‘हैप्पी भाग जाएगी’ में एक किरदार कहता है, “काश! ऐसी
लव-स्टोरीज़ पाकिस्तान में होतीं.” सच मानिए, कुछ मामलों में ये ‘तनु वेड्स
मनु’ बनाने की चाह में भटकी हुई कोई अच्छे बजट की, पर सस्ती सी पाकिस्तानी फिल्म
ही नज़र आती है. यहाँ सब कुछ मिलेगा, पर सब आधा-अधूरा, अधपका और जल्दबाजी से भरा
हुआ! [2/5]
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