Friday, 12 August 2016

मोहेंजो दारो: कहो ना ‘बोर’ है! [2/5]

इतिहास के पन्नों में झांकना अपने आप में मनोरंजन से कम नहीं है. हज़ारों कहानियां, और हर कहानी में विस्मयाधिबोधक घटनाओं की भरमार; बशर्ते आपमें तथ्यों को नज़रअंदाज़ करने और घटनाओं की सत्यता पर प्रश्नवाचक चिन्ह न लगाने की सहनशीलता भारी मात्रा में हो. और फिर आशुतोष गोवारिकर की ‘मोहेंजो दारो’ तो बस एक आम सी बॉलीवुड फिल्म है जिसका वास्तविक इतिहास से उतना ही लेना देना है, जितना आपका और हमारे जैसे कम-पढ़ाकू जानकारों का, जिनको बात-बात में गूगल-देव की सेवाएं लेने में रत्ती भर भी झिझक नहीं होती. अगर आपने स्कूल की इतिहास की किताब में सिन्धु घाटी सभ्यता के बारे में वो एक 6-8 पन्नों वाला चैप्टर भी ध्यान से पढ़ा होगा, तो आपको अंदाजा हो जायेगा कि ‘मोहेंजो दारो’’ के साथ, गोवारिकर आपको 2016 से 2016 ईसापूर्व में ले तो गए हैं, पर बॉलीवुड के घिसी-पिटी और बेरस कहानी कहने के फार्मूले को यहीं छोड़ना भूल गए.

नगर बुरे लोगों के चंगुल में है. कभी खुशहाली बसती थी यहाँ, मोहेंजो दारो में, अब झूठ, छल और ठगी का व्यापार होता है. आम लोगों पर मनमाने करों का बोझ लादा जा रहा है. ऐसे में, एक बाहरी साहसी नवयुवक सरमन [ह्रितिक रोशन] नगर में आता है. उसे लगता है उसका कोई पुराना रिश्ता है इस नगर से. यहीं उसे अपनी संगिनी भी मिलती है, चानी [पूजा हेगड़े], जिसे पाने की कोशिश उसे नगर के प्रधान महम [कबीर बेदी] और उसके बेटे मूंजा [अरुणोदय सिंह] के सामने ला खड़ी करती है. सरमन अब जन-जन की आवाज़ बन चुका है. पर अभी और भी कुछ राज हैं, जो उसके सामने खुलने बाकी हैं. उसका इस नगर से क्या वास्ता है? उसका अपना अतीत और नगर का भविष्य दोनों एक ही धागे के दो छोर हैं, पर उलझे हुए. फिल्म का अंत सब सवालों का हल लेकर आता है, पर अहम् सवाल ये है कि इस औसत दर्जे की कहानी को मोहेंजो दारो के ऐतिहासिक चमक-दमक का चोला पहनाने की जरूरत क्या थी?

पीरियड फिल्मों में ‘मोहेंजो दारो’ गोवारिकर की सबसे कमज़ोर फिल्म है. ऐसा नहीं है कि आशुतोष आपको सिंघु घाटी के नज़दीक ले जाने में कोई चूक करते हैं, पर इस बार न तो उनके पास ‘लगान’ जैसा ड्रामा है, न ही ‘जोधा-अकबर’ जैसा शानदार स्केल. फिल्म अपने रोचक, पर बनावटी और कुछ ज्यादा ही अलबेले कॉस्टयूम डिज़ाइन से आपका ध्यान कहानी की गंभीरता (?) से भटकाती रहती है. फिल्म में इस्तेमाल हुए विजुअल ग्राफ़िक्स का औसत स्तर भी फिल्म का एक बहुत बड़ा कमज़ोर पक्ष है. ‘सपने’ को ‘सपीने’, ‘सवाल’ को ‘सुवाल’ जैसे उच्चारण के साथ, आशुतोष उस वक़्त की बोलचाल की भाषा के लिए जिस तरह का प्रयोग करते हैं, वो हास्य उत्पन्न करने के लिए तो सटीक लगता है, पर वास्तविकता से उसको जोड़ने में भरोसेमंद साबित नहीं होता. आर रहमान का संगीत ही है, जो एक पल के लिए भी अपने आपको शक के घेरे में खड़ा नहीं होने देता. उनके संगीत में एक तरह का कबायली ‘टच’ है, जो आपको बांधे भी रखता है, और उनसे और उम्मीद करने की छूट भी देता ही.

अभिनय में, नितीश भारद्वाज [बी आर चोपड़ा की ‘महाभारत’ के कृष्ण] एक बिलकुल नए रूप में आपको बहुत अरसे बाद परदे पर देखने को मिलते हैं. ताज्जुब होता है, भारतीय सिनेमा उनसे इतने दिन तक दूर कैसे रह पाया? उन जैसे ही अभिनय-प्रतिभा के कुछ और धनी नरेन्द्र झा और मनीष चौधरी भी फिल्म में दिखाई तो पड़ते हैं, पर महज़ खानापूर्ति के लिए बनी भूमिकाओं में. अरुणोदय सिंह अपनी कद-काठी के साथ अच्छा प्रभाव डालते हैं, अच्छे लगते हैं. कबीर बेदी इस तरह की भूमिकाओं में हमेशा सहज रहे हैं, हालाँकि उनसे बहुत कुछ की उम्मीद करना भूल ही जाईये. पूजा हेगड़े बहुत अलग सी दिखती हैं. उनकी अगली फिल्मों का चयन काफी हद तक उनकी पहचान बनाने में अहम साबित होगा. ह्रितिक पूरी फिल्म अपने कन्धों पर ढोते नज़र आते हैं, पर इस मुकाम पर इस तरह की औसत फिल्मों में उनका होना उनकी सारी मेहनत, कवायद और शख्सियत के लिए शायद एक उल्टा खेल साबित हो.

आखिर में; ‘मोहेंजो दारो’ ऐतिहासिक स्थलों के उस टूर की तरह है, जहां लोकेशन्स अपनी एक अलग कहानी बयां करने की कोशिश कर रहे हैं, पर आपका टूर गाइड रटे-रटाये तरीके से, अपनी सहूलियत के हिसाब से, आपको अपनी गढ़ी हुई एक अलग ही कहानी बताये जा रहा है, जो न तो सच है, न ही रोचक...और कभी-कभी तो बहुत बोर!! [2/5]       

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