‘रंग दे बसंती’
में कहानी को परदे पर कहने की कला में राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने कुछ काफी
सफल प्रयोग किये थे. अलग-अलग वक़्त के दो धागों के सिरे बारी-बारी से कभी छूटते-कभी
गुंथते नज़र आये थे. दो कहानियां, जिनकी सूरतें भले ही एक-दूसरे से ख़ासी मुख्तलिफ़
हों, सीरत बिलकुल एक जैसी. अंजाम की भनक होते भी दिल और दिमाग के साथ ऐसी उथल-पुथल,
ऐसी उठा-पटक कि अंत तक क्या मजाल आप किसी एक तय नतीज़े पर टिक कर रह पाने का पूरा
पूरा लुत्फ़ ले पाएं. ‘मिर्ज्या’ मेहरा के उसी प्रयोग की अगली कड़ी
है. वक़्त यहाँ भी थम कर नहीं रहता. पाले बदलता रहता है. छलांग मार कर इधर से उधर
पहुँच जाता है, शटलकॉक की तरह. नयापन बस इतना है कि इस बार पाले दो नहीं, तीन हैं,
और अक्सर आप इसी पेशोपेश में उलझे रहते हैं कि किस छलांग के साथ आप किस पाले में और
क्यूँ आ गिरे हैं?
दूधिया बर्फ़ से पटे पड़े
पहाड़ियों के बीच, आसमान में उड़ते मिट्टी के परिंदों को तीरों से मटियामेट करते मिर्ज़ा
[हर्षवर्धन कपूर] को साहिबां [सैयामी खेर] से इश्क़
है, साहिबां को भी है, पर दरमियान जो
दुनिया की लम्बी-चौड़ी-मज़बूत आसमान छूती दीवार है, वो कहानियों में दफ़न इस सदी से कहीं
दूर अगली सदी में भी ज्यूँ की त्यूं वैसी ही मुस्तैदी से तैनात है. मुनीश
और सुचित्रा की किस्मत भी मिर्ज़ा और साहिबां की कहानी वाली ही
स्याही से लिखी गयी है. इसमें जुदाई है, आह है, तड़प है, न मिल के भी मिल जाने का सुकून
है, और मिल के भी न मिल पाने का मलाल भी. किस्मत के मारे आशिक़ों को ‘सब’ न मिल
पाने की ये कहानी पहले भी अनगिनत बार परदे पर दोहराई जा चुकी है, और कहीं न कहीं फिल्म
के ‘मिर्ज़ा-साहिबां’ वाले हिस्से में ये आसानी से पच भी जाता है, पर नए
ज़माने में इसे वैसे का वैसे निगलना टेढ़ी खीर लगने लगता है.
‘मिर्ज़ा-साहिबां’
की सदियों पुरानी लोककथा को आज के नए ज़माने में ‘रंग दे बसंती’ की ही तर्ज़
पर पिरोने में, मेहरा कहानी को कबीलाई लोक-संगीत और लोक-नृत्यों के सहारे जो
एक तीसरा नया आयाम देते हैं, वो देखने-सुनने में बहुत ही रंगीन और निहायत रूमानी लगता
है. परदे पर दृश्य पानी में रंग घुलते हुए देखने जैसा अनुभव देते हैं. हरेक फ़्रेम
में ख़ूबसूरती इठला-इठला के बहती है, थोड़ी धीमी होके ठिठकती है, और फिर अपने पहले
वाली लय में आके आगे निकल जाती है. इतने सब के बावजूद ‘मिर्ज्या’ आपको
निराश ही ज्यादा करती है. वजहें एक से ज्यादा हैं. गुलज़ार साब की शे’र-ओ-शायरी
जो गानों में अपने पूरे शबाब पर दिखाई देती है, फिल्म के स्क्रीनप्ले में किरदारों
के बीच जरूरी गर्माहट पैदा करने में हर बार चूक जाती है. बातचीत के लहजों के लिए नए
कलाकारों को दोष दिया जा सकता है, पर संवादों में ‘चाशनी’ की कमी के लिए अब किसे
कहें? ‘मिर्ज्या’ को देखना उस मूर्ति या उस पेंटिंग को देखने जैसा ही है,
जिसे देखकर आप तारीफ में कह उठें, “काश, इसके अन्दर जान भी होती!”. ऐसा
कहकर जाने-अनजाने आप उसके मुकम्मल न होने की दुहाई भी अपने आप ही दे बैठते हैं.
हर्षवर्धन कपूर बॉलीवुड के खांचे में फिट
होने वाले अभिनेता नहीं दिखते. हालाँकि उनके हिस्से ठहराव वाले दृश्य ही ज्यादा
आये हैं, जहां उनकी ख़ामोशी, उदासी, बेबसी ज्यादातर खाली आँखों से ही बयान करने की मांग
पूरी करती हैं. सैयामी उम्मीदें कायम रखती हैं. आर्ट मलिक अपनी अलग किस्म
की संवाद-अदायगी से, अनुज चौधरी अपनी कद-काठी से और अंजली पाटिल अपनी
संजीदगी से प्रभावित करते हैं.
कहानी कहने की अलग शैली, अपने
अलग तौर-तरीकों से ‘मिर्ज्या’ परदे पर फिल्म से हटके एक ‘थिएटर प्रोडक्शन’
ज्यादा लगती है, जहां साज-सज्जा में रंगीनीयत और चमक धुआंधार है, कहानी में
नाच-गानों की भरमार है, पर जहां कुछ भी जिंदा नहीं है, न तो कहानी, न ही किरदार. इलेक्ट्रॉनिक
डिस्प्ले बोर्ड या आपके कंप्यूटर स्क्रीन पर विजुअल ग्राफ़िक्स से गढ़े गए एनिमेटेड
वॉलपेपर नहीं होते? जिनपे तैरती रंग-बिरंगी मछलियों को आप चाह के भी छू नहीं सकते,
महसूस नहीं कर सकते? ठीक वैसा ही. [2/5]
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