पटना के प्रोफेसर
बटुकनाथ चौधरी, उम्र 55 साल की प्रेम-कहानी अपनी ही एक शिष्या जूली,
उम्र 26 साल के साथ, टीवी के समाचार चैनलों पर काफी लोकप्रिय रही थी. देखने वालों
से लेकर दिखाने वालों तक, सब अपने-अपने नजरिये से इस औगढ़ प्रेम-कहानी को परंपरागत सामाजिक
ढ़ांचे से अलग-थलग करके देखने की जुगत भिड़ा रहे थे. तकरीबन 10 साल बाद, श्लोक
शर्मा की ‘हरामखोर’ कुछ इसी तरह की पृष्ठभूमि पर अपनी एक अलग कहानी गढ़ने
का साहस दिखाती है. फर्क सिर्फ इतना है कि श्लोक फिल्म या फिल्म के
किरदारों के बारे में राय बनाने का हक दर्शकों के जिम्मे छोड़ने की हिम्मत नहीं
दिखा पाते. जहां एक तरफ फिल्म का निहायत ही स्पष्ट टाइटल सीधे-सीधे आपको एक तयशुदा
मंजिल की ओर लगातार धकेलता रहता है, वहीँ दूसरी ओर फिल्म की शुरुआत में ही उनका सधा
हुआ ‘डिस्क्लेमर’ कहानी कहने-समझने से कोसों पहले ही बचाव की मुद्रा में आ जाता
है. मुझे नहीं पता, अगर ऐसा किन्ही सामाजिक संगठनों (सेंसर बोर्ड या बाल कल्याण
समिति जैसा कोई भी) के दबाव में आकर किया गया हो.
श्याम (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी)
अव्वल दर्जे का हरामखोर मास्टर है. अपनी ही एक स्टूडेंट को पटा कर पहले ही बीवी
बना चुका है, और अब मंसूबे दूसरी स्टूडेंट संध्या (श्वेता त्रिपाठी) को भी
भोगने की है. फ्रस्टियाता है तो स्कूल में बच्चियों को बेरहमी से कूट भी देता है.
गिरगिट ऐसा कि जब बीवी सुनीता (त्रिमला अधिकारी) उसे गुस्से में छोड़ कर जा
रही होती है, मनाने के लिए जमीन तक पर लोट जाता है. पर अगले ही पल जब उसे थप्पड़
पड़ता है, तो झुंझलाहट में उसी बीवी को गालियाँ बकने लगता है. श्लोक बड़ी
आसानी से और बड़ी जल्दबाजी में उसे ‘हरामखोर’ पेश करने में लग जाते हैं, जबकि फिल्म
में बड़े ‘हरामखोर’ कद में छोटे और इरादों में कमीने कुछ ऐसे बच्चे हैं, जो बड़ी
सफाई से न सिर्फ बड़ों (श्याम-संध्या और सुनीता) के रिश्तों में उथल-पुथल
मचाते रहते हैं, बल्कि बड़ी बेशर्मी से उनके किरदारों को कसौटी पर कसने की, उनकी नैतिकता
पर फैसले सुनाने की हिमाकत भी खूब करते हैं.
कमल (मास्टर इरफ़ान
खान) को भी संध्या से पहली नज़र का प्यार है. कमल को संध्या से मिलाने में मिंटू
(मास्टर मोहम्मद समद) हर वक़्त एक पैर पर खड़ा रहता है. उसी ने बताया है कि
अगर लड़का-लड़की एक दूसरे को बिना कपड़ों के देख लें, तो उनकी शादी हो जाती है. कमल
ने संध्या को देख लिया है, अब सारी मेहनत सफल हो जाये अगर संध्या भी कमल को बिना
कपड़ों में देख ले. संध्या बिन माँ की बच्ची है. पिता अक्सर शराब में धुत्त घर
लौटते हैं. संध्या जानती है, हर हफ्ते पिता काम-काज का बहाना करके शहर क्यूँ जाते
हैं? नीलू जी सिर्फ उसके पिताजी के साथ काम नहीं करतीं, दोनों ने अपना एक अलग
आशियाना बना रखा है. पिता की बेरूखी और उनसे कटाव भले ही संध्या के लिये मास्टरजी
के चंगुल में फंसने का वाजिब बहाना दिखे, पर संध्या बखूबी और पूरी मजबूती से इस
प्यार में खुद को कड़ा और खड़ा रहती है.
'हरामखोर’ उस खांचे की फिल्म है,
जहाँ फिल्म का बैकग्राउंड इतना जमीनी है कि आप उससे जुड़े बिना नहीं रह सकते. टीले
पर अगर तेज़ हवा सांय-सांय बह रही है, तो धूल जैसे आपके चेहरे पर पर भी आ रही है, इतना
जमीनी. पर श्लोक जहाँ चूकते नज़र आते हैं, वो है उनके किरदारों का ताबड़-तोड़
आपके सामने खुल के बिखर जाना. कुछ इतनी तेज़ी से कि उनसे आपका लगाव हमेशा बनते-छूटते
रहता है. फिल्म में बहुत सारे पल ऐसे हैं जो बोल्ड होते हुए भी मजेदार हैं और मजेदार
होते हुए भी उतने ही बोल्ड, पर एक बार फिर, एक-दूसरे से इतने कटे-कटे कि लगता है
जैसे जिग्सा पजल के कुछ टुकड़े
अभी भी बीच-बीच में रखने बाकी हैं.
मुकेश छाबड़ा
कास्टिंग में कमाल कर जाते हैं, खास कर बाल कलाकारों और नीलू जी की भूमिका निभाने
वाली कलाकार के चयन में. पैंट-बुशर्ट पहनने वाली, लड़कों जैसे कटे बालों में संध्या
के पिता की प्रेमिका फिल्म की शायद एकलौती ऐसी कलाकार हैं, जिनके साथ आप धीरे-धीरे
जुड़ना शुरू करते हैं, और अंत तक आते-आते उन्ही का एक दृश्य फिल्म का सबसे निर्णायक
और सबसे संजीदा बनकर उभरता है. नवाज़ुद्दीन अगर अपने हाव-भाव, तौर-तरीके से गंवई
मास्टरजी का एकदम सटीक चित्रण पेश करने में कामयाब रहते हैं, तो श्वेता भी
आपको हैरान करने में पीछे नहीं रहतीं. 15 साल की उमर, झिझक, तुनक, छिटक, खनक, सनक;
श्वेता संध्या की किरदार से पल भर भी दूर नहीं होतीं. मास्टर इरफ़ान
और मास्टर समद फिल्म के सबसे मजेदार दृश्यों को अपने नाज़ुक कन्धों पर बिना
किसी शिकन के ढोते रहते हैं. त्रिमला बेहतरीन हैं.
आखिर में; श्लोक शर्मा की ‘हरामखोर’ उस खुरदरे, उबड़-खाबड़
रस्ते जैसी है, जिस से होकर कभी आपने बचपन का सफ़र तय किया होगा. एक बार फिर उन रस्तों
पर चलने, न चलने की सुविधा लाख आपके पास हो, बीते वक़्त का जायका चखने का मोह कौन
छोड़ना चाहेगा भला? बेहतर होता, अगर कहानी पूरी तरह जीने के बाद निष्कर्ष पर
पहुँचने की सुविधा भी हमारे ही हाथ होती! किरदारों के साथ तसल्ली से जुड़ कर उन्हें
‘हरामखोर’ ठहरा पाने का सुख भी हमारे (दर्शकों के) ही नसीब होता!...और
थोड़ी कम अस्त-व्यस्त, कम बिखरी-बिखरी! [3/5]
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