1975 में; सलीम-जावेद
की ‘दीवार’ जनवरी महीने के ठीक इसी हफ्ते सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई थी. 42 साल
बाद, राहुल ढोलकिया की ‘रईस’ अगर इतिहास दोहरा नहीं रही, तो कम से
कम ‘दीवार’ के साथ हिंदी फिल्मों में नायक के बदलते हाव-भाव और ताव को एक
बार फिर उसी जोश-ओ-जूनून से परदे पर जिंदा करने की कोशिश तो पूरी शिद्दत से करती ही
है. फिल्म का टाइटल-डिजाईन हो, कहानी के जाने-पहचाने उतार-चढ़ाव हों, नायक के
तौर-तरीके, सिस्टम के साथ उसकी उठा-पटक या फिर फिल्म के निर्माण में फरहान
अख्तर (जावेद साब के बेटे) की बेहद ख़ास भूमिका; ‘रईस’ में कुछ
भी इत्तेफ़ाक नहीं लगता. ‘रईस’ हिंदी फ़िल्म इतिहास के सबसे बाग़ी और जोशीले ’70
के दशक का जश्न कुछ इस ज़ोर-शोर से मनाती है, लगता है जैसे सिनेमा का मौजूदा पर्दा
भी 70mm की तरह ही फैलने-खुलने लगा है.
‘दीवार’ अगर मुंबई
अंडरवर्ल्ड के सबसे नामी तस्कर हाजी मस्तान की जिंदगी से अपनी कहानी चुनती
है, तो ‘रईस’ गुजरात के अवैध शराब माफिया अब्दुल लतीफ़ के किस्सों के
आस-पास ही अपनी जमीन तलाशती है. हालाँकि दोनों ही फिल्में विवादों से बचने के लिए ‘काल्पनिक’
होने की सुविधा का भरपूर लाभ उठाती हैं. गुजरात में शराब पर पाबन्दी है, और ‘पाबन्दी
ही बग़ावत की शुरुआत होती है’. कोई धंधा छोटा नहीं होता और धंधे से बड़ा कोई
धर्म नहीं. इसी फलसफे पर चलते-चलते, रईस हुसैन (शाहरुख़ खान) शराब की
तस्करी के धंधे में आज सबसे बड़ा नाम है. कानून अब तक तो उसकी जेब में ही था, पर जब
से ये कड़क और ईमानदार अफसर मजमूदार (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी) आया है, माहौल
में गर्मी थोड़ी बढ़ गयी है. मजमूदार रईस की गर्दन तक पहुँचने का कोई भी मौका छोड़ना नहीं
चाहता, पर रईस हर बार अपने ‘बनिए के दिमाग और मियाँ भाई की डेरिंग’ के
इस्तेमाल से बचता-बचाता आ रहा है. चूहे-बिल्ली की इस दौड़ में यूँ तो किसी की भी
चाल, कोई भी दांव इतना रोमांचक नहीं होता कि आप जोश-ओ-ख़रोश में सीट से ही उछल पड़ें,
पर दोनों किरदारों की कभी ढीली न पड़ने वाली अकड़, लाजवाब एक्शन और वजनदार संवादों
के जरिये हर बार आपको लुभाती रहती है.
‘रईस’ का रेट्रो
लुक फिल्म की साधारण कहानी पर किसी भी पल भारी पड़ता है. जमीन से उठकर अंडरवर्ल्ड
सरगना बनने का सफ़र, और फिर गरीबों का मसीहा बनकर राजनीति में उतरने का दांव; फिल्म
की कहानी में ऐसे उतार-चढ़ाव कम ही हैं, जो आपने देखे-सुने न हों. इतना ही नहीं, ठहरी
हुई शुरुआत और सुलझे हुए अंत के दरमियान, फिल्म कुछ इस रफ़्तार से भागने लगती है कि
आपके लिए ‘क्या छोड़ें-क्या पकड़ें’ वाली दुविधा पैदा हो जाती है. फिल्म ’70 के
दशक में जाने के उतावलेपन में गुजरे ज़माने की खामियों को भी उसी बेसब्री से अपना
लेती है, जितनी शिद्दत से उस दौर की काबिल-ऐ-तारीफ़ अच्छाइयां. नायिका (माहिरा
खान) को बड़ी समझदारी और सहूलियत से कहानी में किसी खूबसूरत ‘प्रॉप’ की तरह लाया
और ले जाया जाता है. गाने के दौरान ही शादियाँ हो जाती हैं, गाने के दौरान ही
बच्चे भी और गानों की आड़ में ही दुश्मनों का सफाया!
‘स्टारडम’ के पीछे दुम
हिलाती फिल्मों से हम कितने पक और थक गए हैं, इसकी सबसे ताज़ा मिसाल है ‘रईस’.
भले ही औसत दर्जे की कहानी के साथ ही सही, पर परदे पर शाहरुख़ की शानदार
शख्सियत को एक जानदार किरदार के तौर पर पेश करने की पहल भर से ही ‘रईस’
अपने नंबर बखूबी बटोर लेती है. पहले ‘फैन’, फिर ‘डियर जिंदगी’
और अब ‘रईस’; शाहरुख़ किसी नौसिखिये की तरह परदे पर अपनी एक बनी-बनाई
‘इमेज’ को तोड़ कर नये सांचे में ढलने की खूब कोशिश कर रहे हैं. ये आज के लिए भी अच्छा
है और आने वाले कल के लिए भी. नवाज़ुद्दीन बेख़ौफ़ हवा की तरह हैं, बहते हैं
तो देखते भी नहीं कि आगे कौन है, क्या है? परदे पर वो हीरो की तरह स्लो-मोशन में
भले ही एंट्री न लेते हों, मार-धाड़ भी न के बराबर ही करते हैं, फिर भी तालियाँ
उनके हिस्से में जैसे पहले से ही लिख-लिखा के आई हों. मोहम्मद जीशान अय्यूब
पूरी मुस्तैदी से फिल्म के सबसे ठन्डे फ्रेम को भी अपनी अदाकारी से गर्म रखते हैं,
चाहे फिर उनके पास देने को ‘रिएक्शन’ के चंद ‘एक्सप्रेशंस’ ही क्यूँ न हों.
आखिर में, राहुल ढोलकिया
भले ही तमाम राजनीतिक सन्दर्भों (मुंबई ब्लास्ट, हिन्दू-मुस्लिम दंगे, गोधरा-कांड)
को इशारों-इशारों में पिरो कर फिल्म को एक माकूल जमीन देने की कोशिश करते हों, ‘रईस’
रहती तो एक मसाला फिल्म ही है, जिसके लिये मनोरंजन का बहुत कुछ दारोमदार सत्तर के
दशक के सिनेमा और नब्बे के दशक के शाहरुख़ पर टिका दिखाई देता है. अब इससे
खतरनाक मेल और क्या होगा? [3/5]
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