Friday 14 April 2017

बेगम जान: हो जाएगा, एक ‘रीमेक’ और लगेगा! [2/5]

कोठेवालियां मुंहफट होती हैं. बेहयाई की हद पार करने में न आव देखती हैं, न ताव. अपनी पे आ जायें तो खुले-आम कपड़े उतार भी सकती हैं, और उतरवा भी. कपड़े ही क्यूँ? समाज के दोगले, दोहरे चेहरों से नकाब खींच कर, समाज के सामने ही नंगा भी कर सकती हैं. अपने रिसते-सड़ते घाव खुले में ही उघार कर बैठ जाती हैं कुरेदने. गालियों को रंग-बिरंगी लाली बनाकर होठों पे ऐसे सज़ा लेतीं हैं, जैसे उनके बिना इनका साज़-संवार पूरा ही नहीं होता. हिंदी फिल्मों में कोठेवालियों या रंडियों को सिर्फ और सिर्फ इन्हीं प्रतीकों, इन्हीं मापदंडों से नापे जाने की आदत बहुत पहले से हैं. हाँ, श्याम बेनेगल की ‘मंडी’ कुछेक ऐसे चंद नामों में से जरूर है, जो तासीर और तस्वीर दोनों में ढर्रे से बहुत अलग और बहुत आगे की फिल्में मानी जा सकती हैं. बहुत दुःख की बात है कि सृजित मुखर्जी की ‘बेगम जान’ पहले वाली ही कैटेगरी में ही अपना नाम दर्ज करा पाती है.

मंडी’ का जिक्र यहाँ और भी ख़ास इसलिए हो जाता है, क्यूंकि ‘बेगम जान’ अपनी कहानी का काफी हिस्सा ‘मंडी’ से ही ले आती है. समाज और सरकारों से अपने कोठे को छोड़कर कहीं और चले जाने का बेरहम फरमान, दोनों ही फ़िल्मों में कहानी की नींव बुलंद करते हैं. दोनों ही फिल्में औरतों के उस उपेक्षित तबके का संघर्ष परदे पर पेश करती हैं, जो सदियों से दबी-कुचली और मुख्यधारा से कटी-बंटी हैं. हालाँकि ‘बेगम जान’ में भारत-पाकिस्तान बंटवारे की त्रासदी का तड़का कहानी को और सनसनीखेज जरूर बना देता है, पर ‘मंडी’ की सटीक संवेदनाएं, ‘मंडी’ की सी साफगोई, ‘मंडी’ की सी धार को छू भर पाने में भी नाकामयाब रहता है. फिल्म के एक हिस्से में रुबीना (गौहर खान) अपने दलाल आशिक़ (पितोबाश त्रिपाठी) के हाथ अपने जिस्म पर फेरते हुए कहती है, “रुबीना मांस के इन लोथड़ों में नहीं हैं, रुबीना आँखों से बहते इन आंसुओं में है.” काश, फिल्म खुद अपनी इन लाइनों को समझने का माद्दा दिखा पाती. बदन उघाड़ कर दिखाने की बैसाखी छोड़ कर, जिस्मों की छाल के भीतर का दर्द कुरेदने की हिम्मत जुटा पाती!

बेगम जान’ सृजित मुखर्जी की अपनी ही बंगाली फिल्म ‘राजकहिनी’ का रीमेक हैं. फिल्मों को ‘फ्रेम टू फ्रेम’ दुबारा बनाने का चस्का जाने कब रुकेगा? वो भी तब, जब उसमें आपका ‘वैल्यू एडिशन’ जीरो के बराबर हो. इस फिल्म से ‘भट्ट कैंप’ अपनी रिहाई तलाश रहा है. बेहतर होता, अगर सब कुछ ‘ज्यों का त्यों’ दुबारा गढ़ने के बजाय, लेखन और निर्देशन में नए नजरिये तलाशने की कोशिश की गयी होती. फिल्म एक साथ बहुत सारी बातों को इशारों-इशारों में एक के बाद एक बिना रुके पिरोती जाती है. बेगम जान (विद्या बालन) का कोठा अक्सर देश की तरह सुनाई देने लगता है, जब वहां रहने वाली हर लड़की अलग-अलग बोली बोलते नज़र आती है. कहने में भले ही बहुत भावुक लगता हो, परदे पर सुनने में ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ जितना ही चिड़चिड़ाहट भरा. ऐसा ही एक प्रयोग सृजित, भारत-पाकिस्तान के दो अधिकारियों (आशीष विद्यार्थी और रजित कपूर) के बीच की बातचीत के वक़्त करते हैं, जब परदे पर बारी-बारी से दोनों के चेहरे सिर्फ आधे-आधे ही दिखाई देते हैं. बंटवारे का दर्द चेहरे बाँट-बाँट कर दिखाने का ये बचकाना प्रयोग बार-बार दोहराया जाता है, जब तक आप ऊब कर इधर-उधर न देखने लगें.

कास्टिंग के नजरिये से, फिल्म बेहद दिलचस्प है. कोठे की मालकिन की भूमिका में, विद्या बालन शुरू-शुरू में तो अपने तेज़-तर्रार, अक्खड़ और बेबाक किरदार को बड़े सलीके से निभाती हैं, पर अंत तक आते-आते उनमें न जाने कौन सी बिजली दौड़ने लगती है कि उनकी बदहवासी धीरे-धीरे नाटकीयता की सारी हदें पार कर जाती है. शबाना आज़मी मोड में तो वो कभी नहीं रहीं, पर अपने आप के अभिनय मापदंडों को भी भुलाने में उन्हें ज्यादा देर नहीं लगती. गौहर खान, पल्लवी शारदा और आखिर के कुछ दृश्यों में रिद्धिमा तिवारी अपना काम अच्छे से कर जाती हैं, और शिकायत का मौका नहीं देतीं. इला अरुण और दंगाई कबीर की भूमिका में चंकी पाण्डेय हैरान कर देते हैं.

सृजित शुरुआत में ‘बेगम जान’ मंटो और इस्मत चुगताई को समर्पित करने की ढिठाई दिखाते हैं, और ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ से ख़तम करने की सीनाजोरी. दोनों लेखकों को जिसने पढ़ा हो, वो बिना कहे समझ पायेगा कि बॉलीवुड इन दोनों का कैसे और कितना गलत इस्तेमाल कर सकता है? बंटवारे और वेश्याओं का जो कुछ भी सनसनीखेज दिखावा परदे पर बन सकता था, सृजित सब कुछ कर गुजरते हैं. इतना ही नहीं, इतिहास के पन्नों से ढूंढ-ढूंढ कर रानी लक्ष्मीबाई, रज़िया सुल्ताना जैसी वीरांगनाओं का भी सहारा ले लेते हैं, पर अफ़सोस, ‘बेगम जान’ कहती कम है, शोर-शराबा ज्यादा करती है, दिखावों में उलझ कर रह जाती है, यहाँ तक कि उसके बलिदान में भी आपको अपनी ‘मुक्ति’ ज्यादा नज़र आती है...2 घंटे 14 मिनट के इस ‘ड्रामे’ से! किस्मत सृजित का साथ दे, तो तीसरी बार शायद अच्छी बन जाये! [2/5]       

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