जो बनारस के करीब हैं, या बनारस
जिनके दिल के करीब है, वो इस अनुभव की पुष्टि खुले दिल से करेंगे कि मृत्यु को
लेकर जितना जंजाल, जितना हो-हल्ला, जितना झमेला, जितना ऊल-जलूल हौव्वा हमने अपने
दिमाग में पाल रक्खा है; बनारस किसी कारगर दवा की तरह एक ही ख़ुराक में सब हर लेता
है. मृत्यु को मात्र एक प्रक्रिया मानकर, शांत-चित्त से देखने और जीने का गुर
सीखना हो, तो नाव पर बैठकर बनारस के घाटों को बस एकटक निहारते रहिये. शुभाशीष
भूटियानी की ‘मुक्ति-भवन’ कुछ ऐसा ही दुर्लभ, गहन, पर रोचक अनुभव
परदे पर पेश करती है, जहां मौत की अवधारणा जिन्दगी के आम उतार-चढ़ाव से कहीं ज्यादा
शांत और मनोरंजक लगती है.
बाबूजी (ललित बहल) को एक ही
सपना बार-बार दिखाई देने लगा है. उनकी मानें, तो अब उनके (पहले बनारस, और फिर
मर कर ऊपर) जाने का वक़्त आ गया है. हालाँकि उनकी बहू (गीतांजली कुलकर्णी)
को ये सब बस घूमने-फिरने के चोंचले लगते हैं. इन सब में बेटे राजीव (आदिल हुसैन)
की मुश्किलें बढ़ गयी हैं. बाबूजी के साथ बनारस के मुक्ति-भवन में रहना पड़ेगा, जहां
बाबूजी जैसे और भी लोग हैं जो मोक्ष-प्राप्ति के लिए बनारस में ही अपनी मृत्यु की
राह जोह रहे हैं. विमलाजी (नवनिन्द्र बहल) को तो 18 साल हो गये, हर 15 दिन
बाद नाम बदल कर मुक्ति-भवन में ही टिकी हैं. राजीव को शायद इतना इंतज़ार न करना
पड़े, मुक्ति-भवन के कर्ता-धर्ता मिश्राजी (अनिल रस्तोगी) देख कर ही
बता देते हैं कि किसका वक़्त नज़दीक है?
शुभाशीष भूटियानी
फिल्म के यथार्थवादी कथानक को पूरी तरह तवज्जो देते हुए, बनारस में होते हुए भी अति-लोकप्रिय
दृश्यों और अति-प्रचलित प्रतीकों के जरिये बनारस को परदे पर दोहराने से बचते हैं. उनका
बनारस छोटे-छोटे सीलन भरे कमरों, तंग गलियों, संकरी सीढ़ियों और खुली छतों के
किनारों से गंगा को ताकने तक ही खुद को सीमित रखता है. यहाँ तक कि उनका कैमरा गंगा-आरती
जैसे मनोरम, दैविक और दर्शनीय पलों के वक़्त भी अपने जमीनी किरदारों के हाव-भाव पर ही
ज्यादा केन्द्रित रहता है. शुभाशीष अपने हलके-फुल्के व्यंग्य और खालिस असली
किरदारों के साथ सिनेमा और वास्तविक जिन्दगी का फर्क सा ही मिटा देते हैं. मौत के
इंतज़ार में बेटा सोते हुए बाप की सांस टटोल रहा है, और बाप है कि मृत्यु-शैय्या पर
लेटे-लेटे भी भजन-मंडली को सुर में गाने की सलाह दे रहा है. बुजुर्ग बाप और अधेड़
उम्र के बेटे के बीच की ख़ामोशी भी बहुत बार बहुत कुछ बोलती सुनाई देती है. विमलाजी
जब बाबूजी से कहती हैं, “मुझे जलन होती, अगर आप यहाँ आये इतनी जल्दी मर जाते”
तो अचानक मौत जैसे एक ही साथ बहुत हलकी और गहरी दोनों लगने लगती है. ऐसे ही एक मार्मिक
पल में, घिसे-पिटे, खानापूर्ति के लिए अख़बार में छपवाए गए शोक-संदेशों से ऊब कर, ‘मुक्ति-भवन’
के सारे बूढ़े-बुजुर्ग अपनी-अपनी मृत्यु का शोक-संदेह खुद ही लिखने बैठ जाते हैं.
‘मुक्ति-भवन’
अदाकारी में एक अध्याय की तरह देखा जाना चाहिए. आदिल हुसैन की
अकुलाहट, उकताहट और सकुचाहट उनकी आँखों की गहराई से निकलती है, और आपको अन्दर तक
छू जाती है. कितनी ही बार उनका चेहरा पूरे स्क्रीन पर बिना कुछ कहे, पूरी तसल्ली के
साथ अपनी बेचैनी बयाँ कर जाता है. बनारस की गलियों और घाटों पर भटकते हुए बड़ी
तल्लीनता और सजगता से आदिल एक नामचीन कलाकार से आगे बढ़कर, महज़ एक चेहरा, एक
किरदार बन भीड़ में खो जाते हैं. ललित बहल के अभिनय में ठहराव फिल्म
की रफ़्तार से पूरी तरह कदम मिला कर चलती है. नवनिन्द्र और अनिल रस्तोगी
अपने अपने हिस्सों को इतनी सुगमता से जीते हैं कि उन्हें परदे पर बार-बार देखने की
तलब होने लगती है. गीतांजलि कुलकर्णी और उनकी बेटी की भूमिका में पलोमी
घोष कम वक़्त के लिए ही सही, पर परदे पर अपने सधी अदाकारी से प्रभावित करने
में सफल रहती हैं.
आखिर में; ‘मुक्ति-भवन’ जीवन-मृत्यु
के घोर-चिंतन और रिश्तों की पेचीदगी को बड़ी परिपक्वता और पूरी संजीदगी से कुछ इस तरह
परदे पर जिंदा करती है, कि आप जिंदगी से कहीं ज्यादा मौत के फ़लसफ़े का आनंद लेने में
मग्न रहते हैं. फिल्म में मिश्राजी बिना बात राजीव को मशवरा देते हैं, “आप
पान खाया कीजिये!”, ‘मुक्ति-भवन’ के लिए मैं भी कुछ ऐसा ही कहूँगा, “देख
आईये! कुछ बातों के लिये वजहें खोजने की जरूरत नहीं. कुछ बातों को वजहों की दरकार
नहीं.” सिनेमाई परदे पर जीवन-मृत्यु को लेकर दर्शन-चिंतन और मनोरंजन का इतना
सटीक मेल-मिलाप पिछली बार रजत कपूर की ‘आँखों-देखी’ में ही दिखा था.
[4.5/5]
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