‘नूर’ बॉलीवुड में किसी बहुत
बड़े बदलाव का दावा नहीं करती, पर अपने देखने वालों को ऐसा न कर पाने का ग़म भी मनाने
नहीं देती. कैसे आजकल की फिल्मों को जमीनी और ज़हीन होने की जरूरत है, इस कसौटी पर
अक्सर हम दर्शक और फिल्म-समीक्षक उन्हें सिरे से खारिज़ करते या सर पर बैठाते आये
हैं. ‘नूर’ इस मामले में हमसे कहीं ज्यादा समझदारी दिखाती है. हिंदी
फिल्मों के लिए आज अगर ‘मेनस्ट्रीम सिनेमा’ का कोई ख़ाका मेरे दिमाग में बनता है,
तो ‘नूर’ उसके बहुत आस-पास है. ‘नूर’ अपने मुख्य किरदार की ही तरह,
एक ही वक़्त में भरोसेमंद भी है, और ढुलमुल भी; पर उसकी तरह बेतरतीब, बेपरवाह और बेढंगी
बिलकुल नहीं.
नूर रॉय चौधरी (सोनाक्षी सिन्हा)
की ज़िंदगी में शिकायतों की कोई कमी नहीं. घर के खराब गीज़र से लेकर टीआरपी खोजने
वाली पत्रकारिता की दुनिया में मुर्दे की तरह ठंडा कैरियर; नूर हर बात पर रोने-धोने
वाली कोई भी आम लड़की है. उसे सनी लियॉन के इंटरव्यू से ज्यादा असली लोगों
की असली जिंदगी में झाँकने का शौक है. और हड़बड़ी कि कब उसे भी ‘इश्यू बेस्ड’
जर्नलिस्म में जौहर दिखाने का मौका मिले. यहाँ तक की फिल्म पूरी ताजगी और
हलके-फुल्के पलों के साथ आपको कई सारी अच्छी हॉलीवुड ‘डेट’ फिल्मों की याद लगातार दिलाती
रहती है, खासकर ‘ब्रिजेट जोंस’ सीरीज के फिल्मों की. घटनाएं इसके
बाद संजीदा हो जाती हैं, जब नूर को एक ऐसा ही मौका मिलता है, पर अपने बचकाने
रवैय्ये से वो सब कुछ गँवा बैठती है.
सनहिल सिप्पी के खाते
में ‘स्निप!’ जैसी इंडी फिल्म पहले से है. ‘नूर’ के साथ वो 17 साल
बाद बॉलीवुड में वापसी कर रहे हैं. पाकिस्तानी लेखिका सबा इम्तियाज़
की किताब ‘कराची, यू आर किलिंग मी’ पर आधारित, ‘नूर’ में सनहिल
मेनस्ट्रीम हिंदी फिल्मों को एक नयी खुशबू में पिरो कर पेश करने का प्रयोग करते
हैं, जो देखने में बहुत कुछ ‘डियर जिंदगी’ और ‘कपूर एंड संस’ जैसा
ही लगता है. हालाँकि ‘नूर’ की कहानी में इन दोनों फिल्मों जैसी सच्चाई और ईमानदारी
थोड़ी कम ही है, फिर भी फिल्म में 3 चीजें आपको एक पल के लिए भी निराश नहीं करतीं. सोनाक्षी
को इस फिल्म में एक ‘न्यूकमर’ की तरह देखा जाना चाहिए, एक कॉंफिडेंट न्यूकमर की
तरह. बड़ी-बड़ी नायक-प्रधान फिल्मों में अपनी बेबाकी और दिलेरी से वो भले ही जगह
बनाए रखने में कामयाब दिखी हों, इस छोटी सी फिल्म के साथ अभिनेता के तौर पर, सोनाक्षी
अपनी हर हद तोड़ने की कोशिश करती हैं, और कामयाबी कई बार महज़ कोशिशों में भी खोजी
जानी चाहिए. ‘मुंबई, यू आर किलिंग मी’ के मोनोलॉग में सोनाक्षी
को सराहते-सराहते, अचानक आप इशिता मोइत्रा उधवानी के लिखे
संवादों की तारीफ़ के लिए सटीक शब्दों की खोज करने लगते हैं. पैने, तीखे, धारदार,
बेतकल्लुफ़, नपे-तुले, मज़ेदार; मेरे जेहन में कुछ इतने ही आये हैं. इशिता की
कलम वहाँ सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, जहां आप पहले से जानते हैं कि किरदार कुछ
रटा-रटाया ही बोलने वाले हैं, जैसे कैमरे के सामने स्मिता ताम्बे के
किरदार का बयान.
फिल्म में किको नाकाहारा का
कैमरा बड़ी ख़ूबसूरती से मुंबई को परदे पर उकेरता है. किरदारों के हाव-भाव कैद करने
में नाटकीयता का सहारा कम ही लेता है, और एक सपनीली दुनिया की तरह सब कुछ अच्छा-अच्छा
दिखाने में ज्यादा मशगूल रहता है, मगर बहुत ही सधे हुए प्रयोगों के साथ. यही वजह
है कि अक्सर किको अपने आप को दोहराते जरूर नज़र आते हैं, पर कहीं भी बोर
नहीं करते. मशहूर स्टैंड-अप कॉमिक कनन गिल औसत राइटिंग की वजह से फिल्म
में दिखते तो बहुत हैं, अच्छे भी लगते हैं पर बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाते. शिबानी
दांडेकर, पूरब कोहली, स्मिता ताम्बे और मनीष चौधरी एक साथ मिलकर
फिल्म को एक मज़बूत सपोर्ट सिस्टम की तरह संभालते हैं. फिल्म के छोटे से छोटे
दृश्यों में भी इन कलाकारों की मौजूदगी आपकी दिलचस्पी कम नहीं पड़ने देती.
एक दृश्य में, नूर अपनी नाराज़ कामवाली
बाई मालती (स्मिता ताम्बे) के बंद कमरे के सामने बैठी उसे फेसबुक पर
फ्रेंड-रिक्वेस्ट भेजती है. नूर की बेवकूफी की वजह से मालती अपना भाई खो चुकी है. फिल्म
के आखिरी दृश्यों में, मालती के लिए इन्साफ की लड़ाई लड़ते हुए नूर सोशल मीडिया का
सहारा लेती है, और फिर कहीं जाकर एक दिन मालती उसका फ्रेंड-रिक्वेस्ट मान लेती है.
‘नूर’ एक फिल्म के तौर पर इतनी ही असली, इतनी ही कम महत्वाकांक्षी, इतनी ही
भोली और इतनी ही फिल्मी है. फेसबुक और ट्विटर पर पोस्ट्स लिखने से क्रांति नहीं
आती, ‘नूर’ अच्छी तरह जानती है, पर ‘लाइक्स’ तो आते हैं. ‘लाइक इट फॉर
सोनाक्षी!’ [3/5]
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