हर खेल का एक भगवान होता है. मुक्केबाजी
में जैसे मुहम्मद अली, बास्केटबॉल में जैसे माइकल जॉर्डन. क्रिकेट में ये रुतबा
सचिन तेंदुलकर को हासिल है. बावजूद इसके, ‘सचिन- अ बिलियन ड्रीम्स’ इस
लिविंग लीजेंड को परदे पर ख़ुदा बनाकर पेश करने की भूल नहीं करती. बल्कि फिल्म की सारी
कवायद सचिन की जिंदगी में एक ‘फैन’ होने की गरज से झाँकने की रहती है. एक ऐसी
फिल्म, जिनमें सचिन एक आम खिलाड़ी की तरह बुलंदियों का सफ़र तय कर रहे होते हैं, या
फिर अपने पारिवारिक जीवन में सुकून की छाँव तलाशते नज़र आ रहे हैं. सचिन परदे पर
ज्यादातर वक़्त अपनी कहानी खुद ही बयाँ करते दिखाई देते हैं. इसीलिए कहानी कहने की शैली
कभी-कभी उन्हीं की तरह बहुत सीधी-सादी, फीकी और साधारण जरूर लगती है, पर आखिर में उनके
चेहरे, उनकी शख्सियत, उनकी अदायगी में रची-बसी वही सादगी, वही अच्छाई आपको लुभाती
भी रहती है.
क्रिकेट दौरे से लौटे सचिन अपनी बेटी
सारा से पूछ रहे हैं, “शतक मारने के बाद पापा कैसे इशारा करते हैं?’, डेढ़-दो
साल की सारा अपने दोनों हाथ हवा में उठा देती है. अपनी पत्नी अंजली से पहली बार
मिलने की कहानी बताते हुए वो उतने ही ‘क्यूट’ दिखने की कोशिश करते हैं, जितने वो
अंजलि को तब लगे थे. उनकी शादी के विडियो में भी वो ही ‘दिल के आकार’ वाली विंडो
खुलती-बंद होती है, जो अब आपको अपनी शादी के विडियो में शर्मिंदा कर जाती है. बेटे
अर्जुन को क्रिकेट सिखाते हुए उनके अन्दर भी वही ‘बाप’ दिखता है, जो बेटे की
कोशिशों में हमेशा ‘और अच्छा करने’ की गुंजाईश ढूंढ रहा है. इन सब छोटे-छोटे खूबसूरत
पलों के बीच, सचिन का क्रिकेट कैरियर, जो पाकिस्तान में अब्दुल कादिर जैसे
दिग्गज के सामने खड़े हो पाने से लेकर शेन वार्न और शोएब अख्तर
जैसों की धुनाई तक सबको रटा-रटाया है, बहुत सलीके से एक के बाद एक परदे पर आता है.
‘सचिन- अ बिलियन ड्रीम्स’ खुद
‘नॉस्टैल्जिक’ होने और आपको करने की कोई कसर नहीं छोड़ती, पर साथ ही कहीं न कहीं आपकी
उम्मीदों पर तब नाकामयाब साबित होती है, जब आप फिल्म से ‘थोड़ा और’ चाहने लगते हैं.
थोड़ा और, जो आपने सुना न हो. थोड़ा और, जो आपने सुना हो, पर सचिन से नहीं. थोड़ा और,
जिसे बयाँ करना सचिन के लिए भी आसान न हो. सचिन और फिल्म दोनों इस उबड़-खाबड़ रस्ते
पर जाने से बचते हैं, और आपको उसी एक तय रास्ते और रफ़्तार पर हलके-हलके घुमाते
रहते हैं. सचिन का ‘फैन’ होने के नजरिये से आपको अच्छा भी लगता है, पर एक जागरूक दर्शक
के तौर पर आपका रोमांच कहीं बीच में ही छूट जाता है. ‘मैच-फिक्सिंग’ जैसे गंभीर
मुद्दे पर सचिन सिर्फ इतना कह कर कन्नी काट लेते हैं कि, “मैं क्या बोलता, जब
मुझे कुछ पता ही नहीं था”. सचिन की अच्छाई, जो उनके मासूम चेहरे से छलकती भी
है, को अलग कर दें, तो उनके संवाद बहुत ही आम, बेअसर और कभी-कभी बहुत ज्यादा ‘स्ट्रक्चर्ड’
सुनाई देते हैं. एकरसता इस हद तक है कि कप्तानी से हटाये जाने पर बोलते हुए, ‘...और
उन्होंने मुझे एक फ़ोन भी नहीं किया’ जैसा एक थोड़ा सा ही कड़ा बयान भी आपको वो ‘किक’
दे जाता है, जो आप फिल्म से उम्मीद लगाये बैठे थे.
फिल्म के एक दिलचस्प हिस्से में,
लोग मशहूर और सीनियर क्रिकेटर मोहम्मद अज़हरुद्दीन को नज़रंदाज़ करके सचिन का
ऑटोग्राफ लेते हुए दिखाई देते हैं. दूसरे हिस्से में, इंग्लॅण्ड के भूतपूर्व
कप्तान नासिर हुसैन कहते हैं, “स्लेजिंग का सचिन पर असर भी क्या पड़ता, जब लाखों
लोग स्टेडियम में एक साथ ‘सचिन-सचिन’ कर रहे हों’. सच्चे मायनों में सचिन के कैरियर
में उतार-चढ़ाव के ऐसे अनकहे-अनसुने किस्से फिल्म में बहुत कम हैं. इसी तरह फिल्म में
कपिल देव, सिद्धू, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली और धोनी का ‘न’
के बराबर दिखाई और सुनाई देना भी खलता है.
आखिर में, ये कोई डॉक्यूमेंटरी
फिल्म नहीं है, जो पूरी तरह ‘फैक्ट एंड फुटेज’ हवाले से बनी हो. हालाँकि
फिल्म में सचिन के बचपन का काफी हिस्सा अभिनेताओं के साथ दुबारा शूट किया गया है,
पर ये कोई बायोपिक भी नहीं है. डोक्यू-ड्रामा जैसा कुछ कहना ही सही होगा, पर उससे कहीं
ज्यादा ‘सचिन- अ बिलियन ड्रीम्स’ भारत में, और भारतीय क्रिकेट में सचिन के ‘होने’
का जश्न मनाने वाली एक बॉलीवुड मसाला फिल्म है, जहाँ सचिन हीरो हैं, और बस्स सचिन
ही हैं. हर फ्रेम में. बॉलीवुड के किसी जाने-माने सुपरस्टार की नयी-ताज़ी फिल्म की
तरह, इसमें फैमिली है, ड्रामा है, रोमांस है, इमोशन है, एक्शन है, और एक जबरदस्त
क्लाइमेक्स भी. भरपूर मनोरंजन! [3.5/5]
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