बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर आजकल
माँ-बाप कुछ ख़ासा ही जागरूक हो गए हैं. जिंदगी एक दौड़ है, और इस दौड़ में पीछे रह
जाने वालों के लिए कोई जगह नहीं, इस पागलपन को सर पे लादे बेचारे माँ-बाप बच्चों
के बेहतर भविष्य के लिए क्या-क्या कर गुजरने का जोखिम नहीं उठाते, पर ध्यान से
देखें तो इतनी भी बेचारगी नहीं है. खेल सब किया कराया है, उस एक छोटी समझ का, जिसके
हिसाब से बच्चों की कामयाबी का सारा दारोमदार फर्राटेदार इंग्लिश बोलने की चाहत से
शुरू होकर शहर के सबसे बड़े, सबसे महंगे स्कूल में एडमिशन मिल जाने तक ही सीमित है.
इक जद्दो-जेहद समाज के ऊँचे तबके तक पहुँचने की. साकेत चौधरी की ‘हिंदी
मीडियम’ माँ-बाप के उसी अँधाधुंध भाग-दौड़ को बड़े मनोरंजक तरीके से आपके सामने
रखती है.
राज बत्रा (इरफ़ान खान) चांदनी
चौक में कपड़ों की दुकान चलाता है. रहने-खाने की कोई कमी नहीं है, पर उसकी बीवी मीता
(सबा क़मर) का सारा ध्यान बस इसी एक कोशिश में रहता है कि उनकी बेटी पिया का
एडमिशन कैसे भी दिल्ली के सबसे महंगे स्कूल में हो जाये. इसके लिए जरूरी है कि माँ-बाप
न सिर्फ अमीर हों, अमीर दिखें और लगें भी. शुरुआत हो चुकी है, राज को अपने चांदनी
चौक की गलियाँ छोड़कर वसंत विहार जैसे पॉश इलाके में घर लेना पड़ेगा. उसके बाद ‘द
सूरी’ज़’, ‘द मल्होत्रा’ज़’ जैसे अमीरों से मेल-जोल बढ़ाना, ताकि पिया को
अच्छी संगत मिले, और फिर स्कूल के इंटरव्यू की तैय्यारी. इंग्लिश में तंग हाथ लिए बिचारे
राज के लिए तो जान पर बन आई है, पर मीता हार नहीं मानने वाली. बड़ी उलट-फेर तब होती
है, जब इतनी जद्द-ओ-जेहद के बाद भी पिया का एडमिशन नहीं होता, और अब बस एक ही
रास्ता बचा है. स्कूलों में ‘राईट टू एजुकेशन’ एक्ट के तहत मिलने वाले गरीबी कोटा
में गरीब बनकर अप्लाई करना.
साकेत चौधरी
बढ़ा-चढ़ाकर ही सही, पर आजकल के शिक्षा-जगत में फैली दुर्व्यवस्था पर हर तरीके और हर
तरफ से व्यंग्यात्मक प्रहार करते हैं. मीता का इंग्लिश मीडियम स्कूलों को लेकर हद
दर्जे का पागलपन अगर कई बार आपको झकझोरता है, तो कई बार झुंझलाहट भी पैदा करता है.
फिल्म की शुरुआत में जब साकेत जवानी की दहलीज़ पर कदम रख रहे राज और मीता की
लव-स्टोरी दिखाने का तय करते हैं, उसकी जरूरत आपको आगे चल कर समझ आती है. जिंदगी
से राज और मीता दोनों की अपेक्षाएं, उम्मीदें और ख्वाहिशें हमेशा एक-दूसरे से जुदा
रही हैं. जहाँ ‘एलिट’ बनने की चाह मीता की आँखों में चमक ले आती है, वहीँ राज के
लिए अच्छा पति, अच्छा पिता बने रहना ज्यादा मायने रखता है.
फिल्म की कहानी में ठहराव और उबाल
दोनों एक साथ तब आते हैं, जब परदे पर आपकी जान-पहचान श्याम (दीपक डोबरियाल)
और उसकी बीवी (स्वाति दास) के किरदार से कराया जाता है. अपने बेटे के भविष्य
के लिए उसकी पढ़ाई-लिखाई के प्रति जागरूक एक माँ-बाप ये भी हैं, जो गरीबी की मार
सहते हुए भी कोशिश करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते. जहां एक की बुनियाद में झूठी
चमक-दमक है, इन माँ-बाप की जिद और धुन ईमानदारी की कसौटी पर पक्की और सच्ची है.
हालाँकि अंत तक आते-आते, साकेत थोड़े तो नाटकीय होने लगते हैं, पर कमोबेश
गुदगुदाते रहने की उनकी आदत पूरी फिल्म में एक सी ही रहती है. चूकते वो सिर्फ एक
जगह हैं, जहां बात एक ही तराजू से सभी अमीरों और गरीबों को तोलने की आती है. सारे
के सारे अमीर मुंहफट, बदतमीज़, सारे के सारे गरीब हमदर्द, मददगार.
इरफान खान घर
की दाल जितने जाने-पहचाने हो गए हैं अब. रोज मिलते रहें, तब भी आपको कोई कोफ़्त
नहीं होगी, कोई शिकायत नहीं होगी. हाँ, अगर ज्यादा दिन तक न मिलें, तब तरसना बनता
है. कपड़े की दुकान पर जिस तरह ग्राहकों से पेश आते हैं, या फिर अमीर-गरीब बनने के खेल
के बीच जिस तरह झूलते दिखाई देते हैं, उनका हर एक्ट तीर की तरह वही लगता है, जहाँ
के लिए निशाना लगाया गया था. फिल्म खुद बहुत ज्यादा संजीदा होने से बचती है, तो आप
भी इरफ़ान से मनोरंजन की ही उम्मीद लगाईये, निराश नहीं होंगे. सबा अपने
किरदार से आपको जोड़े रखने में कामयाब रहती हैं, पर दीपक और स्वाति
जिस दर्जे का अभिनय पेश करते हैं, आप उन्हें भूलने नहीं पाते. स्वाति अगर अपनी
मौजूदगी मात्र से ही आपका ध्यान लगातार अपनी ओर खींचती रहती हैं, तो दीपक
कुछ ख़ास पलों में बड़ी आसानी से आपकी आँखें नम कर जाते हैं. दीपक उन दृश्यों
में भी कमजोर दिखाई नहीं पड़ते, जिनमें इरफ़ान भी मौजूद हों, और अभिनय में ये
रुतबा बहुत कम अदाकारों को नसीब है.
आखिर में; ‘हिंदी मीडियम’ एक
ऐसी जरूरी फिल्म है, जो भारत के अपर मिडिल-क्लास की खोखली महत्वाकांक्षाओं पर
हंसती भी है, हंसाती भी है. वो जिनके घरों में रैपिडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स
की किताब शीशे की आलमारियों से मुंह निकाल कर झांकती हैं, और जयशंकर प्रसाद,
मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ कहीं नीचे, पीछे दबी-दबी धूल फांकती
हैं. देखिये, और हंसिये थोड़ा अपने आप पर भी! [3.5/5]
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