Friday, 19 May 2017

हाफ़ गर्लफ्रेंड: अधपकी, कच्ची, आधी-अधूरी! [1/5]

कुछ लोगों को साहित्य और सिनेमा के नाम पर कुछ भी परोसने की लत लग चुकी है. ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ बनाने के पीछे मोहित सूरी की वजह थी, इसी नाम से चेतन भगत की ‘बेस्टसेलिंग’ किताब; पर चेतन भगत के लिए ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ लिखने की क्या माकूल वजह थी, मुझे नहीं समझ आता. एक ऐसी किताब, जिसके किरदारों में न रीढ़ की हड्डी हो, न दिमाग़ की नसें, न कायदे के कुछ ठीक-ठाक ज़ज्बात, आखिर क्यूँ कर कोई पढ़ेगा और फिर परदे पर देखेगा भी? तमाम प्रेम-कहानियों में दो आधे-अधूरे मिल कर एक हो ही जाते हैं, ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ इतनी वाहियात है कि आधा और आधा मिल के भी आधे-अधूरे ही रहते हैं.

भला राजा और रानी के बगैर भी कभी कोई कहानी लिखी गयी है? तो यहाँ भी एक राजकुमार हैं. बिहार के सिमराव गाँव के बाऊ साब माधव झा (अर्जुन कपूर). जब बस से गाँव उतरते हैं तो रुआब ऐसा, जैसे बर्मा के युवराज हों. सारे छोटे-बड़े झुककर सलामी ठोकने लगते हैं. बाऊ साब दिल्ली पहुँच गए समाजशास्त्र की पढ़ाई करने, तुर्रा ये कि इंग्लिश बोलने में फटती है फिर भी पढेंगे तो सेंट स्टीवन्स में. जेएनयू में पढ़ते तो स्पोर्ट्स ब्रा में बास्केटबाल खेलने वाली लड़की कहाँ मिलती? वहाँ तो झक मार के समाजशास्त्र ही पढ़ना पड़ता. खैर, इंटरव्यू में तो बोल आये कि सर, हम हिंदी में उत्तर देना चाहेंगे, तकलीफ ये है कि हिंदी भी कहाँ ठीक से आती है. शॉल पर रिया की जगह रीया लिखवा के आ गए. चेतन भगत और उनके लिखे इस नायक से बौद्धिक चेतना की उम्मीद रखना बेकार ही है, इसीलिए जब पूछा जाता है, ‘बिहार जैसा है, वैसा क्यूँ है?’, बाऊ साब इतिहास में दफ़न बिहार के चंद बड़े-बड़े नाम गिना कर चौड़े हो जाते हैं. ठरकी तो इतने हैं, कि लड़की सामने आते ही चेहरे पर बस एक ही एक्सप्रेशन, “मैं फिर भी तुमको चाहूँगा”, और लड़की के जाते ही दूसरा एक्सप्रेशन, “सर, माइसेल्फ कमिंग फ्रॉम विलेज एरिया...”! तीसरा कोई इनके लिए बना ही नहीं आज तक.

अब आते हैं राजकुमारी साहिबा पर! रिया सोमानी (श्रद्धा कपूर) इतनी बेखौफ और निडर हैं कि जब भी अकेलापन घेरता है, सिक्योरिटी को धता बताते हुए सीधे इंडिया गेट पर चढ़कर बैठ जाती हैं और शहर को ताकती रहती हैं, पर जब घर में बाप माँ के साथ मारपीट कर रहे होते हैं, तो एक कोने में दुबक कर गिटार पे गाने गाती हैं. बारिश की इतनी दीवानी कि जब भी होगी, मैडम खुले आसमान के नीचे भीगती दिखाई देंगी. कभी-कभी तो गिटार के साथ ही. ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ का टर्म इजाद करने वाली रिया के दिमागी दिवालियेपन का भी कोई आदि-अंत नहीं. सेक्स न करने देने पर ‘देती है तो दे, वरना कट ले’ बोलने वाले बाऊ साब के साथ अब भी घूम रही हैं, क्यूंकि लड़का अच्छा है. अरिजीत सिंह के ‘तू मेरा सुकून, तू मेरा जूनून’ गाने पर मुंह लटकाए काफी दिन घूमता रहा था. पाप का प्रायश्चित पूरा, रोमांस का चैप्टर अभी भी अधूरा!

मोहित सूरी की इस फिल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी हैं, अर्जुन कपूर. ऐसा नहीं है कि संवादों में कहीं कुछ बहुत ज्यादा आपत्तिजनक हो, पर उनके मुंह से ‘बिहारी हिंदी’ उतनी ही जाली और फर्ज़ी लगती है, जितनी लोहे की सरिया बनाने वाले ब्रांड के विज्ञापन में एक विदेशी का ‘सबसे सस्ता नहीं, सबसे अच्छा” बोलना. ताज्जुब है कि यही भाषा जब-जब फिल्म में दूसरे कलाकार (विक्रांत मैसी, सीमा बिस्वास) इस्तेमाल करते हैं, तो इतनी कोफ़्त नहीं होती. इतना ही नहीं, इस फिल्म में जो-जो इंग्लिश भी बोलता है, किसी न किसी एक्सेंट में. दोयम दर्जे की इस कहानी में प्यार के नाम पर बस अरिजीत सिंह के गाने हैं, और कुछ नहीं. फिल्म और गिरती चली जाती है, जैसे ही बाऊ साब की नीरस जिंदगी में बिल गेट्स एक बड़ा मकसद ले कर घुस आते हैं. घटिया विज़ुअल ग्राफ़िक्स के ज़रिये बिल गेट्स को परदे पर ‘जाने भी दो यारों’ का सतीश शाह बना कर छोड़ दिया जाता है.

विक्रांत मैसी एकलौते ऐसे कलाकार हैं, जिनको देख के लगता है अभिनय में अभी भी थोड़ी बहुत ईमानदारी बची है. भाषा के अलावा उनके हाव-भाव बहुत ही संतुलित और जरूरत के हिसाब से ही घटते-बढ़ते हैं. सीमा बिस्वास अपने किरदार में पूरी तरह फिट बैठती हैं, हालाँकि चेतन भगत की सतही राइटिंग यहाँ भी उन्हें बस एक ‘कैरीकेचर’ बना के रख देती है. श्रद्धा अपनी पिछली फिल्मों से कुछ भी नया, कुछ भी बेहतर परोसने में असफल रही हैं.

अंत में, ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ चेतन भगत और मोहित सूरी का एक और नया शगूफा है, जो साहित्य और सिनेमा में देश के युवाओं की पसंद-नापसंद जानने का उनका झूठा दम भरने में और इजाफा भले ही करे, है तो बकवास, वाहियात और बेहूदा ही. अगर आपने किताब पढ़ी है, और फिल्म देखने का इंतज़ार भी कर रहे हैं, तो मेरी पूरी सहानुभूति आपसे है. [1/5]            

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