बहुत कम फिल्में होती हैं, जो अपने
पूरे वक़्त में औसत और सामान्य होने के बावजूद अंत तक आते-आते आपको चौंका दें. थ्रिलर
और सस्पेंस फिल्मों में तो अक्सर होता है, पर रोमांटिक लव-स्टोरी में? बेहद कम. अक्षय
रॉय की ‘मेरी प्यारी बिंदू’ ऐसी ही एक रोमांटिक कॉमेडी है, जो ख़त्म
होने के 20 मिनट पहले तक तो अपनी बचकानी हरकतों से आपको खूब झेलाती है, पर उसके
बाद के हिस्से में जिस ख़ूबसूरती से संजीदा हो लेती है, न सिर्फ आँख नम होती है,
दिल पसीजता है, बल्कि एक कसक भी छोड़ जाती है कि काश, जज्बातों में यही साफगोई, यही
संजीदगी पूरी फिल्म में दिखाई दी होती. अक्षय अपनी नायिका से एक जगह
कहलवाते भी हैं, “लव-स्टोरी लिखते वक़्त आखिर कोई कितना अलग-कितना नया हो लेगा?”
इस एक झिझक से बचने के लिए अक्षय फिल्म में बहुत कुछ अच्छा, बहुत कुछ
खूबसूरत इतना ठूंस देते हैं कि उन्हें वक़्त देने में कहानी, किरदारों और उनके बीच
के जज्बाती ताने-बाने को सुलझाने की जगह ही नहीं बचती.
अभिमन्यु रॉय चौधरी (आयुष्मान
खुराना) एमबीए और बैंक की नौकरी करने के बाद, हिंदी में ‘चुड़ैल की चोली’ जैसा
‘‘मसाला साहित्य’ लिख लिख कर नाम बना चुका है. दिक्कत उसे एक लव-स्टोरी लिखने में
आ रही है, जिसपे वो पिछले 3 साल से काम कर रहा है. ऐसे में एक दिन उसे एक ऑडियो
कैसेट मिलता है, जो उसने अपने बचपन की दोस्त और इकलौते प्यार बिन्दू (परिणीति
चोपड़ा) के साथ मिलकर रिकॉर्ड किया था. बिंदू अब अभिमन्यु की जिंदगी से दूर
जा चुकी है. गुजरे ज़माने के उन पसंदीदा गानों के साथ ही, अभिमन्यु बिंदू के साथ
अपने रिश्ते के तमाम पड़ावों को भी याद करते हुए उसे एक कहानी की शक्ल देने में जुट
जाता है. फिल्म अब और तब के झूले में झूलने लगती है. बचपन की दोस्ती
से, जवानी की मस्ती और फिर जिंदगी और प्यार की उलझनें, सब की यादें और उन सारी
यादों से जुड़े कुछ गाने.
अक्षय फिल्म
के लिए उम्मीदों से भरी एक ऐसी नींव तैयार करते हैं, जिसमें पसंद न आने लायक कुछ
भी नहीं है, पर जब वक़्त आता है उस पर ईंटें रखने का, इमारत खड़ी करने का तो उनकी
जल्दबाजी साफ़ दिखने लगती है. गानों से यादों तक और यादों से गानों तक पहुँचने का
सफ़र हिचकोले खाने लगता है. कुछ गाने बड़ी समझदारी से पिरोये गए हैं, तो कुछ बस छू
कर गुज़र जाते हैं. हर गाने के साथ जैसे एक चैप्टर शुरू होता है, फिल्म फ्लैशबैक का
टिकट कटाती है, और फिर बीते ज़माने में उस गाने से जुड़ी यादें टटोलने के बाद वापस
अभिमन्यु के टाइपराइटर की खटखट पर आके ख़त्म. इन सब के बीच, अभिमन्यु का नीरस तरीके
से कहानी सुनाना, नतीजा? किरदारों से जुड़ना रह ही जाता है.
फिल्म में कुछ हद तक जो दिलचस्प और गुदगुदाने
वाला है, वो है अभिमन्यु का बंगाली परिवार. हर बात में हंसी-मज़ाक तलाशने वाले बाबा,
‘नेचुरल ओवर-एक्टिंग’ करने वाली माँ, दिलफेंक ‘बूबी’ मासी और कैरम बोर्ड से चिपके
ढेर सारे पड़ोसी-रिश्तेदार. कोलकाता के उस हिस्से से निकलते ही जैसे फिल्म बेदम
होकर लड़खड़ाने लगती है. कमिटमेंट से बचने और कैरियर के पीछे भागने वाली दोस्त के
प्यार में दिन-रात एक कर देने वाले आशिक़ की कहानी कोई नयी नहीं है, ‘कट्टी-बट्टी’
भी कुछ ऐसी ही ज़मीन तैयार करती है. पुराने फ़िल्मी गानों और अपने ऑथेंटिक लुक की
वजह से ‘मेरी प्यारी बिंदू’ काफी हद तक ‘दम लगा के हईशा’ की तरफ
बढ़ने का हौसला दिखाती है, पर एक ऐसी कहानी, जिसमें ठहराव हो, जिसमें लाग-लपेट और
मिलावटें कम हों, ईमानदारी ज्यादा हो, ऐसी एक प्यारी कहानी की कमी फिल्म को उसके तयशुदा
मंजिल तक पहुँचने से पहले ही रोक देती है. थोड़ी सी राहत की सांस फिल्म को
क्लाइमेक्स में नसीब होती है, जब दोनों किरदारों को एक मुकम्मल अंत मिलता है.
जहां आयुष्मान अपने किरदार
में पूरी तरह समाये हुए दिखते हैं, वहीँ परिणीति सहज तो हैं पर स्क्रिप्ट में
बंधी-बंधाई अपनी हद से आगे निकलने की हिम्मत कतई नहीं जुटा पातीं. आखिर में, ‘मेरी
प्यारी बिंदू’ आपके फेवरेट ऍफ़एम रेडियो स्टेशन का वो लेट-नाईट शो है, जहां आपको
अपने बीते ज़माने के पसंदीदा गाने सुनाने का वादा तो मिलता है, मगर उन गानों के बीच
का पूरा वक़्त, पूरा ताम-झाम इतना बोरिंग है कि न आपसे छोड़े बनता है, न सुनते! [2/5]
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