बैंक में बाबा, हाथी और घोड़े घुस आये हैं. ठीक वैसे ही, जैसे देश की राजनीति में योगी, गाय और भैंस. उथल-पुथल तो मचनी ही है; पर राजनीति की तरह ही यहाँ भी 'बैंक चोर' वादे तो बहुत सारे करती है, पर जब निभाने की बारी आती है तो बचाव की मुद्रा में इधर-उधर के बहाने ढूँढने लगती है, रोमांच के लिए झूठ-मूठ का जाल बुनने लगती है और अंत में 'जनता की भलाई' का स्वांग रचकर अपनी सारी गलतियों पर काला कपड़ा डाल देती है. चतुर, चालक और चौकन्ने चोरों पर यशराज फ़िल्म्स 'धूम' के साथ पहले ही काफी तगड़ी रिसर्च कर चुकी है. सरसरी तौर पर देखा जाये, तो 'बैंक चोर' उसी रिसर्च मैटेरियल की खुरचन है, जो उन तमाम 'चोरी' वाली फ़िल्मों का स्पूफ़ ज्यादा लगती है, ट्रिब्यूट कम.
चम्पक (रितेश देशमुख) अपने दो दोस्तों के साथ बैंक लूटने आ तो गया है, पर अब उसके लिए ये खेल इतना आसान रह नहीं गया है, ख़ास कर तब, जब बैंक के बाहर सीबीआई का एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अमजद खान (विवेक ओबेरॉय) खुद कमान थामे खड़ा हो. खान को शक है कि शहर की दूसरी बड़ी चोरियों के पीछे भी इन्हीं चोरों का हाथ है, हालाँकि इन मसखरे चोरों की बेवकूफ़ाना हरकतों से ऐसा लगता तो नहीं. चोर-पुलिस और सीबीआई की इस पूरी गुत्थम-गुत्थी में, गिरना-पड़ना, दौड़ना, चीखना-चिल्लाना इतना ज्यादा है कि हंसने के लिए भी मुनासिब जगह और वक़्त नहीं मिलता. साथ में, उल-जलूल हरकतों का ऐसा ताना-बाना कि बोरियत आपको अपनी गिरफ्त में लेने लगती है. और तभी कुछ ऐसा होता है, जो आपकी सुस्त पड़ती बोझिल आंखों और कुर्सी में धंसते शरीर को वापस एक जोर का झटका देती है, परदे पर इंटरवल के साथ ही साहिल वैद्य की एंट्री. बैंक में मौजूद असली चोर के रूप में.
फिल्म के निर्देशक बम्पी कहानी का सारा ट्विस्ट फिल्म के आखिरी हिस्से के लिए बचा के रखते हैं, मगर वहाँ तक पहुँचने का पूरा सफ़र अपने नाम की तरह ही उबड़-खाबड़ बनाये रखते हैं. फिल्म में सस्पेंस का पुट डालने के लिए वो जितने भी तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, वो सारे के सारे आजमाए हुए और पुराने ढर्रे के हैं. साहिल वैद्य की एंट्री इस हिसाब से और भी कारगर दिखने लगती है, जब इशिता मोइत्रा के संवाद अब फिल्म के बाकी हिस्सों के मुकाबले ज्यादा सटीक, मजेदार और रोचक सुनाई देने लगते हैं. साहिल फैजाबाद, उत्तर प्रदेश के एक ऐसे चोर की भूमिका में हैं, जो लखनवी अदब और आदाब का लिहाज़ करना और कराना बखूबी जानता है. तू-तड़ाक उसे जरा भी पसंद नहीं, और दादरा का ताल उसे गोली लगे बदन से रिसते लहू में भी साफ़ सुनाई देता है. 'नए-नए बिस्मिल बने हो, तुम्हें रस्म-ऐ-शहादत क्या मालूम?' जैसी लाइनें और इन्हें चेहरे पर मढ़ते-जड़ते वक़्त, जिस तेवर, जिस लहजे का इस्तेमाल साहिल अपनी अदाकारी में करते हैं, उन्हें फिल्म के दूसरे सभी कलाकारों से आगे निकलने में देर नहीं लगती. फिल्म अगर देखी जा सकती है, तो सिर्फ उनके लिए.
विवेक तो चलो अपने रोबदार किरदार के लम्बे-चौड़े साये में बच-छुप के निकल लेते हैं, पर 'बैंक चोर' रितेश देशमुख के लिए एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर जाती है, "क्या कॉमेडी में रितेश का जलवा सिर्फ सेक्स-कॉमेडी तक ही सीमित है?" साफ़-सुथरी कॉमेडी होते हुए भी, रितेश यहाँ भी वही आड़े-टेढ़े एक्सप्रेशन चेहरे पर बनाते रहते हैं, जो 'क्या कूल हैं हम' जैसी फिल्मों में उनका ट्रेडमार्क मानी जाती हैं. फिल्म के एक बड़े हिस्से तक उनका किरदार न तो हंसाने में ही कामयाब साबित होता है, न ही इमोशनली जोड़े रखने में. आखिर तक आते-आते उनके लिए स्क्रिप्ट में सब कुछ ठीक जरूर कर दिया जाता है, पर तब तक देर बहुत हो चुकी होती है. बाबा सहगल अपनी मेहमान भूमिका से फिल्म में थोड़ी और दिलचस्पी बनाये रखते हैं, पर बेहद कम वक़्त के लिए.
आखिर में; 'बैंक चोर' उन बदनसीब फिल्मों में से है जो पन्नों पर लिखते वक़्त जरूर मजेदार लगती रही होगी, पर परदे पर उतनी ही उबाऊ और पूरी तरह नाकाम. मशहूर शेफ हरपाल सिंह सोखी फिल्म में बैंक-कैशियर को सलाह देते हुए अपनी चिर-परिचित लाइन दोहराते हैं, "स्वाद के लिए थोड़ा नमक-शमक डाल लीजिये'; इस फ़ीकी फिल्म के लिए भी मेरी सलाह वही रहेगी. [1.5/5]
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