'ट्यूबलाइट' के होने की वजह मेरे हिसाब से 'बजरंगी भाईजान' की कामयाबी में ही तलाशी गयी होगी. चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने कबीर खान के हाथ अब एक ऐसा अमोघ फार्मूला लग गया था, जिसमें बॉक्स-ऑफिस पर सिक्कों की खनक पैदा करने की हैसियत तो थी ही, आलोचकों और समीक्षकों का मुंह बंद कराने की ताकत और जुड़ गयी. एक सीधी-सादी दिल छू लेने वाली कहानी, थोड़ा सा 'बॉर्डर-प्रेम' का पॉलिटिकल तड़का, चुटकी भर 'बीइंग ह्यूमन' का वैश्विक सन्देश और साफ़ दिल रखने की तख्ती हाथों में लेकर घूमते एक बेपरवाह 'भाईजान'. 'ट्यूबलाइट' बड़े अच्छे तरीके और आसानी से इसी ढर्रे, इसी तैयार सांचे में फिट हो जाती है, पर जब आग में तप कर बाहर आती है तो नतीज़ा कुछ और ही होता है. मिट्टी ही सही नहीं हो, तो ईटें भी कमज़ोर ही निकलती हैं.
कुमाऊँ के एक छोटे से गाँव में गांधीजी कहकर गये, "यकीन से कुछ भी हासिल किया जा सकता है". ट्यूबलाइट की तरह, देर से दिमाग की बत्ती जलने वाले लक्ष्मण (सलमान खान) की सुई इस 'यकीन' पर आके कुछ ऐसे अटक गयी कि सालों बाद 1962 के भारत-चीन युद्ध में लापता भाई (सोहेल खान) की वापसी के लिए भी, लक्ष्मण उसी 'यकीन' की तरफ टकटकी लगाये देख रहा है. कबीर खान कहानी की इस ठीक-ठाक नींव को मज़बूत करने में थकाऊ धीमी गति और पकाऊ भाषणों से इतना वक़्त खपाते हैं कि फिल्म का वो ज़रूरी पैग़ाम देने में देर हो जाती है, जहां चीनी मूल के भारतीय माँ-बेटे लीलिंग और गुओ (ज़ू ज़ू और माटिन रे तंगु) को गांववाले चीनी समझकर नस्ली भेदभाव दिखाने लगते हैं. लक्ष्मण खुद गुओ को 'गू' कहकर बुलाता है, और एक दृश्य में तो गुओ को 'भारत माता की जय' बोल कर हिन्दुस्तानी होने का सबूत देने को भी कहता है. आज के दौर में, जब सेना के जुझारूपन और हर किसी के 'देशभक्त' होने, न होने की पिपिहरी पूरे देश में जोरों से बज रही है, कबीर खान भारतीय सेना के एक अधिकारी (यशपाल शर्मा) से युद्ध-विरोधी बातें कहलवाने की हिम्मत तो जरूर दिखाते हैं, लेकिन सब कुछ बेदम, बनावटी और बेअसर!
फिल्म में बहुत कुछ बेढंगा और वाहियात है, जो आपको लगातार परेशान करता रहता है. कुमाऊँ का यह गाँव फिल्मी सेट लगने-दिखने की हद से बाहर जा ही नहीं पाता. फिल्मों में 80 के दशक के गाँव और वही 25-50 चेहरे, जो हर जगह भीड़ का हिस्सा बनकर चौराहे पर डटे रहते थे, बेबस याद आ जाते हैं. कैलेंडर पर '62 भले ही चल रहा हो, गाँववालों की बातचीत के लहजे में 'चाइना', 'ज़िप', 'गैप' और तमाम अंग्रेज़ी के शब्द बड़ी बेशर्मी से कानों में सुनाई देते रहते हैं. फिर आती हैं मशहूर चीनी अभिनेत्री ज़ू ज़ू. मुझे कोई वजह समझ नहीं आती कि उनकी जगह कोई दूसरी (नार्थ-ईस्ट की) भारतीय अभिनेत्री क्यूँ नहीं हो सकती थी? जैसे उनके बेटे की भूमिका में माटिन रे तंगु अरुणाचल प्रदेश से ही हैं. 'मैरी कॉम' में प्रियंका चोपड़ा की कास्टिंग जैसी ही कुछ भयानक गलती है ये.
...पर फिल्म में एक पॉइंट पर आकर आपको ये सारी शिकायतें बहुत छोटी लगने लगती हैं, जब आप फिल्म के मुख्य कलाकार सलमान खान को एक के बाद एक हर दृश्य में अभिनय के नाम पर कुछ भी आढ़े-टेढ़े चेहरे बनाते हुए देखते हैं. कबीर उनके किरदार को परदे पर रोते हुए पेश करने में ज्यादा मेहनत दिखाते हैं, पर हमें रोना आता है तो सिर्फ सलमान की अभिनय में नाकाम कोशिशों से. फिल्म में सलमान अपने यकीन से पहाड़ भी हिला देते हैं, ऐसा ही कोई यकीन उन्हें अपने अभिनय में भी दिखाना चाहिए. कभी-कभी ही सही. मोहम्मद जीशान अय्यूब जैसे मंजे कलाकार के लिए फिल्म में बहुत कुछ करने को नहीं है, पर एक दृश्य में जब वो सलमान के किरदार को थप्पड़ जड़ रहे होते हैं, लगता है सलमान को जैसे सज़ा मिल रही हो, अच्छी एक्टिंग न करने की, उससे जो शायद फ़िल्म में सबसे अच्छी कर रहा हो. सोहेल खान बड़ी समझदारी से फिल्म में आते-जाते रहते हैं, तो उनसे न तो ज्यादा उम्मीदें बनती हैं, न ही शिकायतें. शाहरुख एक दृश्य में आते तो हैं, पर उनसे भी किसी करिश्मे की कोई आस नहीं जगती.
आखिर में; 'ट्यूबलाइट' में कबीर खान अपने 'बजरंगी भाईजान' वाले फ़ॉर्मूले को बॉक्स-ऑफिस पर दोबारा भुनाने की कोशिश करते हैं, पर ठीक वैसे ही औंधे मुंह गिरते हैं, जैसे 'एक था टाइगर' के बाद 'फैंटम'. रही बात यकीन की, तो मुझे यकीन है कि भाई एक दिन एक्टिंग करनी सीख ही जायेंगे, तब तक के लिए भेजते रहिये 'ईदी'...और बिजली में कटौती, रौशनी में बढौती के लिए अपनाईये एलईडी! [1.5/5]
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