एक धूमकेतु है, 'लव जॉय' नाम का. 800 साल में एक बार पृथ्वी के पास से होकर गुजरता है. अगले हफ्ते ये कुदरती करिश्मा फिर होने वाला है, और इसी के साथ कुछ और भी होने वाला है, जो पहले भी हो चुका है. ठीक इसी वक़्त पर, ठीक इसी मुहूर्त में. तकलीफ़ ये है कि चौसर की इस बाज़ी में सारे के सारे अहम् खिलाड़ी दुनिया के अलग-अलग कोनों में हैं. कहानी का राजकुमार (सुशांत सिंह राजपूत) पंजाब में गिन-गिन कर लड़कियां पटाने में व्यस्त है, अनाथ राजकुमारी (कृति सैनन) लन्दन में चॉकलेट शॉप चलाती हैं, और दुष्ट राजा (जिम सरभ) जाने कहाँ समन्दर के बीचो-बीच बने अपने महल में, एक काली-सफ़ेद तस्वीर में बने चेहरे के होठों पर लाल रंग पोत रहा है.
अब कुदरत, लेखक (गरिमा-सिद्धार्थ) और निर्देशक दिनेश विजान की जिम्मेदारी बनती है, कि कैसे इस एक हफ्ते में तीनों को एक-दूसरे के सामने ला खड़ा करें? रास्ता कठिन है; पहले तो राजकुमार का लन्दन आना, मुलाक़ात के दूसरे दिन ही उनका राजकुमारी के बिस्तर से अंगड़ाईयां लेते हुए बाहर निकलना, दुष्ट राजा साहब का इत्तेफ़ाकन लन्दन आ टपकना, फिर धीरे-धीरे सबको पिछले जनम की याद दिलाना. किसी के आम फ़िल्मकार के बस की कहाँ ये माथापच्ची? फिल्मों में पहले कभी देखा-सुना हो, तो भी थोड़ी मदद हो जाती. खैर...राजकुमारी को सपने आते हैं, अजीब डरावने सपने. अपने 'करन-अर्जुन' की तरह, फोटो-नेगेटिव इफ़ेक्ट में. पानी से डर भी लगता है. राजकुमार के पीठ पर चोट की निशान जैसा बर्थ-मार्क भी है, जैसा शाहरुख़ को था 'ओम शांति ओम' में. राजा साहब से कोई पूछने की हिम्मत भी नहीं करता कि इस जनम में उन्हें सब कुछ याद कैसे आया? ना ही वो बताने की जरूरत भी समझते हैं, पर इन सबमें जो ढाई घंटे (पूरी की पूरी फिल्म) बर्बाद होते हैं, उसे बचाने का एक उपाय तो मैं ही दिनेश विजान साब को सुझा सकता था. अच्छा होता, अगर फिल्म की शुरुआत में ही सारे किरदारों को 'राज़ पिछले जनम का' के एक-दो एपिसोड दिखा दिये जाते. इसी बहाने रवि किशन से अभिनय के गुर भी सीखने को मिल जाते, और सबका दिमाग भी चलने लगता. 'आग से डर लगता है? आप पिछले जनम में जल के मरे थे' ' गले पे निशान है? आप रस्सी से लटक के मरे थे' और सबके सब पिछले जनम में राजा-रानी-सैनिक. कोई गरीब किसान नहीं, किसी की सामान्य मृत्यु नहीं. जाओ, ऐश करो और अपनी मौत का बदला लो.
'राब्ता' देखते हुए एक ख्याल बार-बार दिमाग में हथौड़े की तरह बजता है कि आखिर कोई भी समझदार इस तरह की बेवकूफ़ी भरी, घिसी-पिटी, वाहियात कहानी पर फिल्म बनाने और उसमें काम करने के लिए राजी क्यूँ, और क्यूँ होगा? फिर याद आये इस फिल्म से निर्देशन में कदम रख रहे दिनेश विजान साब, जो खुद 'बीइंग सायरस', 'लव आज कल', 'कॉकटेल', 'बदलापुर' और 'हिंदी मीडियम' के प्रोड्यूसर रह चुके हैं, और फिर अचानक ही मन की सारी शंकायें, दुविधाएं झट काफ़ूर हो गयीं. 'बॉस हमेशा सही होता है' की तर्ज़ पर एक कहावत फिल्म इंडस्ट्री में भी बहुत मशहूर है, 'मेरा पैसा, मेरा तमाशा'. पैसों की गड्डियों के नीचे दबी डेढ़ सौ पेज की स्क्रिप्ट में खामियां किसे दिखतीं भला.
बहरहाल, फिल्म में अगर कुछ ठीक-ठाक है, तो वो हैं फिल्म के संवाद. हालाँकि उनका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं और कई बार तो इतने पीछे चले जाते हैं, जैसे राजकुमार-वहीदा रहमान-मनोज कुमार के 'नीलकमल' की बची-खुची खुरचन हों; पर अपने नए ज़माने के तौर-तरीकों और लहजों से एक वही हैं जो थोड़ा बहुत मनोरंजन करते रहते हैं. अभिनय में कृति कम निराश करती हैं, और शिकायत के मौके भी कम ही देतीं हैं. सुशांत कोशिश तो बहुत करते हैं, पर चाह के भी आप उनको सराहने का ज़ोखिम नहीं ले पाते. जिम सरभ इस तरह की मेनस्ट्रीम मसाला फिल्मों के लिए बने नहीं दिखते. उनका अभिनय 'नीरजा' में चौंका देने वाला था. यहाँ वो आपके भरोसे को डगमगा देते हैं. मेहमान भूमिका में न तो राजकुमार राव खुद पहचाने जाते हैं, न ही उनके अभिनय की वो चिर-परिचित छाप. हाँ, उनके मेक-अप की जितनी तारीफ़ करनी हो, भले ही कर लीजिये.
आखिर में, 'राब्ता' देखने की वजह तो छोड़ ही दीजिये, मुझे इस फिल्म के बनने की वजह भी दूर-दूर तक समझ नहीं आती. इस ढाई घंटे की एक भयंकर भूल को भुलाने में मुझे कोई ख़ास दिक्कत नहीं होगी, पर दिनेश विजान साब से एक शिकायत तो रहेगी. "ज़नाब, इतने ही बजट में चार छोटे-छोटे 'मसान' 'अ डेथ इन द गंज', 'बीइंग सायरस' आराम से आ जाते, इतनी क्या हाय-तौबा मची थी 'राब्ता' परोसने की?' पर मुझे क्या, पैसा आपका, तो तमाशा भी आपका'! [1/5]
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